गांवों की बदलती दुनिया
बढ़ते शहरीकरण के बावजूद अभी भी भारत को इससे जांचा-परखा जाता है कि इसके ग्रामीण क्षेत्रों में क्या कु
बढ़ते शहरीकरण के बावजूद अभी भी भारत को इससे जांचा-परखा जाता है कि इसके ग्रामीण क्षेत्रों में क्या कुछ घटित हो रहा है। पिछले कुछ समय में ग्रामीण भारत में हुए बदलावों को साफ तौर पर देखा-समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए ग्रामीण बाजार औद्योगिक विकास के मुख्य संचालक बन गए हैं। नि:संदेह वषरें से ग्रामीण क्षेत्रों में कर्ज की समस्या चिंता का विषय रही है और बिजली आपूर्ति की खराब स्थिति अभी भी बरकरार है। हालांकि संरचनागत बदलाव के मामले में कुछ सकारात्मक बातें भी हुई हैं। इन बदलावों ने ग्रामीण भारत में सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे के विस्तार पर बल देते हुए नए सिरे से इन क्षेत्रों में ध्यान दिए जाने की जरूरत रेखांकित की है। पिछले दो दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने इन बदलावों को गति प्रदान की है, लेकिन यह सब बहुत जल्दबाजी में किया गया, क्योंकि निरंतर राजनीतिक बदलाव होता रहा है। राजनीतिक रूपांतरण कांग्रेस के नेतृत्व में 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक तौर पर सशक्त करने के प्रयासों का नतीजा है, जिसे बाद में दूसरे अन्य राजनीतिक दलों ने समर्थन प्रदान किया।
देश में तकरीबन 2,40,000 ग्राम पंचायतें हैं, जिनमें करीब 30 लाख चुने हुए प्रतिनिधि हैं। इनमें 40 फीसद अनुपात महिलाओं का है। भविष्य में यह अनुपात कम से कम 50 फीसद होगा। स्वशासन की महत्वपूर्ण संस्था के रूप में जिला परिषद और ग्राम पंचायत, दोनों ही भलीभांति स्थापित हो चुकी हैं। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि जिन इलाकों में पंचायतें मजबूत हैं वहां जनसेवा कार्य प्रणाली अधिक बेहतर और मुखर है। मनरेगा जैसे कार्यक्त्रमों से न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी की दरों को बढ़ाने में मदद मिली है, बल्कि ग्राम पंचायतें भी अधिक सशक्त हुई हैं, क्योंकि इनके तकरीबन आधे कार्य स्वयं उनके द्वारा क्त्रियान्वित किए जाते हैं। आर्थिक रूपांतरण वास्तव में पीएमजीएसवाई अथवा प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का परिणाम है, जिसके तहत तकरीबन 2.7 लाख किमी बेहतर गुणवत्ता की और सभी मौसमों में काम करने वाली सड़कों का निर्माण किया गया है, जबकि तकरीबन 1.5 लाख किमी सड़कों की मरम्मत का कार्य पिछले 12 वषरें में किया गया है। यह कार्यक्त्रम तब शुरू किया गया जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इसमें कुल राशि का योगदान लगभग पांच गुना बढ़ा दिया गया। लोगों के रहने वाले स्थानों और गांवों के बीच संपर्क सुविधाओं में महत्वपूर्ण सुधार हुआ। हालांकि यह योजना अभी भी बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्ताीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 2017 तक ही पूरी हो पाएगी। इसके बाद अन्य 1.5 लाख किमी सड़कों का निर्माण कार्य पूरा किया जाना। पिछले वर्ष पीएमजीएसवाइ का विस्तार किया गया और इसके दायरे में पुरानी सड़कों की मरम्मत तथा उनका स्तर सुधारने के काम को शामिल किया गया। पीएमजीएसवाइ-द्वितीय पहले ही गुजरात, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब में शुरू है।
सामाजिक रूपांतरण महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के विभिन्न राज्यों में तेज विस्तार का नतीजा है। यह समूह केरल और आंध्र प्रदेश में बेहद सफल रहे हैं। देश में फिलहाल ऐसे 26 लाख स्वयंसेवी समूह कार्यरत हैं। वास्तव में केरल से कहीं अधिक आंध्र प्रदेश ने इसे एक मॉडल के तौर पर प्रस्तुत किया है। आंध्र प्रदेश में इसे पहली बार टीडीपी के कार्यकाल में 1990 के मध्य में शुरू किया गया, लेकिन बाद में इसे कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने अधिक तेजी प्रदान की। एनआरएलएम यानी राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जून 2011 में शुरू किया गया, जिसका उद्देश्य 2022 तक देश में मौजूदा 3 करोड़ की संख्या के बजाय 8-10 करोड़ महिलाओं को इसके दायरे में लाने के लिए तकरीबन 90 लाख महिला स्वयं सहायता समूहों को स्थापित करना था। एनआरएलएम एक ऐसा संघ है जिसमें व्यक्तिगत स्तर पर शुरू किए गए स्वयंसेवी समूहों को ग्राम स्तर पर फैलाना था, जो बाद में ब्लॉक स्तरीय संगठन में तब्दील होता। एनआरएलएम के तहत असम, बिहार, छत्ताीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, नागालैंड और ओडिशा महत्वपूर्ण राज्य थे। इनमें बिहार ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। उत्तार प्रदेश में राजीव गांधी महिला विकास परियोजना नाम के एनजीओ ने एनआरएलएम के तहत उल्लेखनीय कार्य करते हुए एक लाख स्वयंसेवी समूहों के माध्यम से राज्य के 42 जिलों में तकरीबन 12 लाख से अधिक महिलाओं को सदस्य बनाया है।
ग्रामीण विकास के इन स्पष्ट संकेतों के बावजूद अभी भी तमाम चुनौतियां हैं। ग्राम सभा अभी भी बहुत सक्त्रिय नहीं हैं। कोष, कार्यप्रणाली और पदाधिकारियों का अभी संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक सशक्त पंचायती ढांचे में पूर्ण हस्तांतरण शेष है। इस मामले में जो राज्य सबसे शीर्ष पर हैं उनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, राजस्थान और तमिलनाडु शामिल हैं। पंचायती संस्थाओं, विशेषकर ग्राम सभाओं की तकनीकी और संगठनात्मक क्षमताओं को मजबूत करना होगा। संसाधनों के वितरण और नियमित ऑडिट की प्रक्त्रिया को भी सुनिश्चित करना होगा। मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत की जरूरतों का भी नए सिरे से आकलन करना होगा। जहां तक महिला स्वयं सहायता समूहों की बात है तो अकेले दक्षिण भारत के चार राज्यों में इन्हें बैंक 80 फीसद मदद मुहैया कराते हैं। बैंकों को दूसरे राज्यों में भी ऐसी मदद उपलब्ध करानी चाहिए। इन समूहों को दी जाने वाली मदद में अगले पांच वषरें में पांच गुना की बढ़ोतरी हो, जो 2013-14 में तकरीबन 24,000 करोड़ रुपये है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि स्वयं सहायता समूहों और पंचायत संस्थाओं में तालमेल बने, जैसा कि केरल में है।
पीएमजीएसवाइ का क्त्रियान्वयन नक्सल प्रभावित जिलों में बहुत कठिन काम रहा है। पीएमजीएसवाइ नेटवर्क से पौधरोपण में काफी मदद मिली है। उपरोक्त तीनों कार्यक्त्रमों में पीएमजीएसवाइ लोगों के बीच अधिक प्रत्यक्ष होने के साथ ही विधायकों और सांसदों में सर्वाधिक लोकप्रिय भी है, लेकिन पंचायतों के महत्व और स्वयंसेवी समूह क्त्रांति को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। प्रकृति में अधिक संस्थागत होने के साथ उनका दीर्घकालिक प्रभाव अधिक है। हालांकि यह संस्थाएं प्रभुत्वशाली जातियों के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं, लेकिन पंचायत निकायों में समाज के कमजोर वगरें को भी प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। स्वयं सहायता समूहों में इनकी भागीदारी काफी अधिक है। इसमें महिलाओं को अधिक अवसर मिलता है। पिछले वर्ष जम्मू-कश्मीर की तकरीबन आधी महिलाओं ने सामाजिक गतिशीलता के लिए बहुत उत्साहपूर्वक स्वयं सहायता समूहों में शिरकत की। पिछले सितंबर माह में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पहली बार भारत का ग्रामीण विकास रिपोर्ट कार्ड तैयार किया। इसके पीछे विचार यही है कि इस वार्षिक रिपोर्ट में ग्रामीण भारत में होने वाले विविध बदलावों और चुनौतियों का विश्लेषण पेश किया जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पहल जारी रहेगी ताकि जमीनी स्तर के हालात से नीति-निर्माता भलीभांति वाकिफ रहें।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]