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अतीत में भविष्य की तलाश

अतीत कभी किसी को भविष्य में नहीं ले जाता। वर्तमान ही भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है, लेकिन कांग्रेस

By Edited By: Published: Thu, 20 Nov 2014 06:01 AM (IST)Updated: Thu, 20 Nov 2014 06:01 AM (IST)
अतीत में भविष्य की तलाश

अतीत कभी किसी को भविष्य में नहीं ले जाता। वर्तमान ही भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है, लेकिन कांग्रेस पार्टी अतीत में अपना भविष्य तलाश रही है। वर्तमान का वह सामना करने को तैयार नहीं है। राजनीति प्रतीकों से चलती है यह तो सच है, लेकिन केवल प्रतीकों से राजनीति करने के प्रयास का एक ही नतीजा हो सकता है- असफलता। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती का दो दिन का जलसा कांग्रेस में जान फूंकने का कोई संकेत नहीं दे पाया। न ही कांग्रेस का समर्थन करने आए जन्मजात नेहरू विरोधियों को समझ में आया कि कांग्रेस के अंगने में दरअसल उनकी भूमिका क्या है। कांग्रेस का नेतृत्व शायद समझ ही नहीं पा रहा है कि नेहरू का क्या कैसे इस्तेमाल करे।

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कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसका लक्ष्य नेहरू के रास्ते पर चलना नहीं है। उसे नेहरू की जरूरत नरेंद्र मोदी को हराने या कम से कम रोकने के लिए है। वह नेहरू की पंथनिरपेक्षता को आगे करके संघ परिवार की सांप्रदायिकता देश को दिखाना चाहती है, लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस नेहरू के पंथनिरपेक्ष रास्ते पर चल रही है? जिस रास्ते को उसने बहुत पहले छोड़ दिया उस पर लोगों से चलने की उम्मीद कर रही है। क्या नेहरू के रास्ते पर चलने वाले देश में कभी इमरजेंसी लगाते? क्या नेहरू के रास्ते पर चलने वाले भिंडरावाले को पैदा करते। देश में संवैधानिक संस्थाओं को एक-एक करके खत्म करने का दोष कांग्रेस किस पर मढ़ेगी। नेहरू ने पार्टी में अपने विरोधियों को अपना दुश्मन नहीं समझा। क्या कांग्रेस का नेहरू के बाद का नेतृत्व ऐसा दावा कर सकता है? कांग्रेस यह भी नहीं कह पा रही है कि वह नेहरू के रास्ते पर लौटना चाहती है। क्योंकि कहने का अर्थ यह स्वीकार करना होगा कि उसने नेहरू का रास्ता छोड़ दिया था।

नेहरू की बात करने से पहले कांग्रेस को सच का सामना करना पड़ेगा। उसे पहले खुद को आइने में देखना होगा कि क्या वह सचमुच नेहरू के रास्ते पर चल रही थी। उसे पहले स्वीकार करना होगा कि वह भटक गई थी। साथ ही देश के लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि वह उस रास्ते पर लौटने के लिए तैयार है। नेहरू नरेंद्र मोदी से नहीं लड़ सकते। उनके विचार भी नहीं लड़ सकते। क्योंकि विचार तभी लड़ सकते हैं जब उन पर चलने वाला कोई हो। नेहरू इस देश के उन नेताओं में थे जिन पर लोग आंख बंद करके भरोसा करने को तैयार थे। उनके किए सही पर भी और गलत पर भी। क्योंकि उन्हें नेहरू की नीयत पर कभी शक नहीं हुआ। कांग्रेस के आज के नेतृत्व पर लोग खुली आंख से भी भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। नेहरू की नीतियों और नीयत दोनों के बारे में लोग मुतमइन थे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पहचान किन नीतियों के आधार पर की जाए यह देश का मतदाता नहीं समझ पा रहा है।

कांग्रेस का जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती मनाना राहुल गांधी के दलित की झोपड़ी में रात बिताने जैसा ही है। उस समय भी राहुल गांधी के पास ऐसी कोई योजना नहीं थी कि उसके बाद क्या करना है। आज भी कांग्रेस के पास कोई कार्यक्रम नहीं है कि आगे क्या। सम्मेलन में जिन राजनीतिक दलों को बुलाया उनसे मिलने का भी समय सोनिया या राहुल के पास नहीं था। इन राजनीतिक नेताओं में ममता बनर्जी को छोड़कर सब नेहरू के धुर विरोधी रहे हैं। ये लोग नेहरू के नाम पर भले आए हों, पर नेहरू के लिए नहीं आए थे। ये सब दरअसल नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के सताए हुए हैं। सबको अपना घर बचाने की चिंता है। इन दलों के नेताओं में नीतीश कुमार भी हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले कहा था कि घर में आग लगी हो तो यह नहीं देखा जाता कि पानी लेकर आने वाला कौन है। बात बहुत व्यवहारिक है और सच भी। सो सबके घर में आग लगी है। बुझाने कौन आए। इसलिए सबको लग रहा है कि पंथनिरपेक्षता के सहारे इस आग को बुझाया जा सकता है। लेकिन उसके लिए भी सबको मिलना पड़ेगा। मशहूर कहावत है कि ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे नहीं हो सकती। कांग्रेस और दूसरे भाजपा विरोधी दलों को अगर कोई मोर्चा या गठबंधन बनाना है तो खुलकर सामने आना चाहिए।

मुश्किल यह है कि इन सारे दलों में कोई भी ऐसा नहीं है जो देश में तो छोड़िए अपने क्षेत्र में भी बढ़ती हुई राजनीतिक ताकत हो। सवाल है कि क्या बहुत सारे शून्य मिल जाएं तो उनका जोड़ शून्य के अलावा कुछ और हो सकता है। सब एक बात पर सहमत हैं कि नरेंद्र मोदी से लड़ना है। पर किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे इसलिए ममता, प्रकाश करात और सोनिया मिलने को तैयार हैं। इनमें नीतियों और कार्यक्त्रमों के स्तर पर क्या समानता है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में समानता खोजना नीतीश कुमार का अपमान ही होगा। मोदी विरोधियों की भविष्य को लेकर कोई साफ दृष्टि नहीं है। रणनीति के स्तर पर भी यही नजर आता है। एक तरफ नरेंद्र मोदी अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी बोलते हैं तो वे देश के लोगों को संबोधित कर रहे होते हैं। दूसरी ओर सोनिया गांधी और राहुल गांधी दिल्ली में बोल रहे थे तो उनकी नजर विदेशी श्रोताओं पर थी। आम लोगों को छोड़िए कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को इससे क्या मिला इसका आकलन कांग्रेस पार्टी को जरूर करना चाहिए। कांग्रेस एक राजनीतिक दल है कोई एनजीओ नहीं।

कांग्रेस को यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि नेहरू कितने महान थे या कितने बड़े पंथनिरपेक्ष। नेहरू के कद को छोटा करने की हैसियत किसी की नहीं है। गांधी परिवार को नेहरू के कद की चिंता छोड़कर कांग्रेस के भविष्य की चिंता करना चाहिए। मोदी की सबसे बड़ी ताकत है देश के लोगों का उनके नेतृत्व पर भरोसा। अब मोदी को रोकने के दो ही तरीके हैं। एक नकारात्मक और दूसरा सकारात्मक। मोदी के प्रति लोगों के भरोसे को तोड़िए या ऐसी नेतृत्व क्षमता विकसित कीजिए जिस पर लोगों को मोदी से ज्यादा भरोसा हो।

राजनीति में युद्ध और प्रेम की तरह सब जायज तो होता है पर कोई शार्टकट नहीं होता। यह बात राहुल गांधी और उनके सलाहकारों को समझ लेनी चाहिए। उन्हें इस बात का आकलन जरूर करना चाहिए कि इस जलसे का कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए हासिल क्या रहा। यह भी कि आखिर इसका मकसद क्या था। अगर इसका मकसद नरेंद्र मोदी को जवाब देना था तो उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। गौरवशाली अतीत सुनहरे भविष्य की गारंटी नहीं हो सकता। नेहरू कांग्रेस और देश का अतीत हैं। राहुल गांधी कांग्रेस का वर्तमान हैं। उनके सामने अग्निपथ है। इस अग्निपथ को पार करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]


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