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कांग्रेस की वैचारिक शून्यता

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन यदि सदाशयता और उदारता के साथ मनाया जाए तो वह उनके करिश्माई व्यक्तित्

By Edited By: Published: Thu, 20 Nov 2014 06:09 AM (IST)Updated: Thu, 20 Nov 2014 06:01 AM (IST)
कांग्रेस की वैचारिक शून्यता

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन यदि सदाशयता और उदारता के साथ मनाया जाए तो वह उनके करिश्माई व्यक्तित्व को भावभीनी श्रद्धांजलि होगी, परंतु जनता का विश्वास खो रही कांग्रेस अब नेहरू के नाम पर नफरत और वैचारिक अस्पृश्यता की दीवारें खड़ी कर रही है। नेहरू का जन्मदिवस 14 नवंबर के बजाय 13 नवंबर को ही मनाना और फिर यह बताना कि उसने भारत के सवा अरब लोगों के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री को आमंत्रित नहीं किया है, कांग्रेस ने अपनी बची-खुची साख पर भी दांव पर लगा दी है। संकीर्णता और अपने वैचारिक विरोधियों के प्रति शत्रुता का व्यवहार कांग्रेस की पहचान रही है। उसे इसका तनिक भी अहसास नहीं है कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के प्रति घोर घृणा और तिरस्कार का व्यवहार करने वाली कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं के प्रति मोदी सरकार ने सम्मान और भद्रता का व्यवहार किया, चाहे वे सरदार पटेल हों, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी या पंडित नेहरू। एक ओर प्रधानमंत्री मोदी सदाशयता दिखा रहे हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस नफरत और अस्पृश्यता का व्यवहार कर नेहरू के ही आदशरें को ताक पर रख राजनीतिक विचारशून्यता का परिचय दे रही है। यह नेहरू की वैज्ञानिक दृष्टि ही थी उन्होंने भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनेक विराट संस्थान खड़े किए। आइआइटी, आइआइएम, अंतरिक्ष अनुसंधान, परमाणु रिएक्टर, और होमी भाभा जैसे वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन पंडित नेहरू के युग की देन है। वह एक स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने विश्व एकता और पंचशील के सिद्धांतों के अनुसार सैन्य स्पर्धाविहीन और युद्ध से परे शांति के संसार का स्वप्न देखा। जैसे कविता हो वैसे उन्होंने कूटनीति का अध्याय लिखा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी सदस्यता के बजाय उन्होंने चीन की वकालत की और दोस्ती के नाम पर चीन को वीटो पॉवर हासिल करने का मौका दिया।

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जहां ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्र भारत की नींव मजबूत करने में पंडित नेहरू का प्रशंसनीय योगदान है वहीं कूटनीति में वह हर मोर्चे पर विफल रहे। चीन से धोखा खाया और 1962 में बिना किसी तैयारी के भारत के बहादुर जवानों को चीन के खिलाफ उतारकर हाथ जला बैठे। संसद की स्थायी रक्षा समिति के सदस्य के तौर पर पिछले दिनों मैं सिक्किम के पास नाथुला सीमा पर तैनात जवानों से मिलने गया। वहां 1962 की स्मृति अभी भी जिंदा है कि सैन्य दृष्टि से जितनी तैयारी भारत को करनी चाहिए थी उतनी नहीं की गई। नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे, कांग्रेस पार्टी के नहीं। सिवाय पंडित नेहरू और उनके खानदान के किसी अन्य राष्ट्रीय नेता का कांग्रेस ने कभी सम्मान नहीं किया। हर बड़े संस्थान, राजमार्ग, योजना, भवन का नामकरण नेहरू-गांधी खानदान के नाम पर ही किया गया।

कांग्रेस नेता कहते हैं कि पंडित नेहरू की राजनीति सर्वसमावेशी थी, लेकिन नेहरू के नाम पर कांग्रेस ने देश के उन तमाम राष्ट्रीय नेताओं की उपेक्षा की जो या तो कांग्रेस से मत भिन्नता रखते थे अथवा कांग्रेस के भीतर होते हुए भी 10 जनपथ की पसंद नहीं थे। सरदार पटेल को राष्ट्रीय फलक पर प्रतिष्ठित करने का काम भी आरएसएस स्वयंसेवकों और भाजपा नेताओं को करना पड़ा। लाल बहादुर शास्त्री का पुण्य स्मरण कांग्रेस से ज्यादा भाजपा करती है। क्या कांग्रेस ने आज तक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी या पंडित दीनदयाल उपाध्याय के प्रति ऐसा कुछ किया। वैचारिक अस्पृश्यता कांग्रेस की देन है। पंडित नेहरू के सद्गुणों के लिए उनकी प्रशंसा करनी ही चाहिए, लेकिन इस बात का भी हिसाब मांगना चाहिए कि उनके प्रधानमंत्री होते हुए भारत कश्मीर में जीतते-जीतते क्यों हारा? जब अक्टूबर 1947 में भारत की सेना कबायलियों के रूप में कश्मीर में घुस आए पाक फौजियों को पीछे खदेड़कर गिलगित, बाल्टिस्तान और मुजफ्फराबाद वापस लेने के लिए बढ़ रही थी और सफलता नजदीक थी तो पंडित नेहरू ने उन्हें रुकने का आदेश क्यों दिया? जम्मू-कश्मीर के पूर्व राच्यपाल ले. जनरल एसके सिन्हा 1948 में श्रीनगर में तैनात थे। उन्होंने इस जीती हुई बाजी के हारने की पूरी जिम्मेदारी नेहरू पर डाली है। पंडित नेहरू के शासनकाल में भारत ने चीन और पाकिस्तान के हाथों जम्मू-कश्मीर का एक लाख पच्चीस हजार वर्ग किमी क्षेत्र गंवाया। उस पर पंडित नेहरू का लोकसभा में जवाब था कि अक्साई चिन में घास का एक तिनका भी नहीं उगता। इस पर देहरादून से कांग्रेस के ही सांसद महावीर त्यागी ने उनसे पूछा कि पंडितजी बाल तो आपके सिर पर भी नहीं उगते तो इसका अर्थ है कि वह भी व्यर्थ है? वह दिल्ली का राजनीतिक नेतृत्व था जिसने उन दिनों देश की आर्डिनेंस फैक्टरियों में फौजी साजो-सामान और हथियार बनाने के बजाय काफी की मशीनें बनाने के आर्डर दिए हुए थे, क्योंकि पंडित नेहरू के अनुसार हमारा कोई शत्रु ही नहीं तो हमें फौज रखने की जरूरत ही क्या है? पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा था कि भारत को लंबी-चौड़ी फौज पर खर्च करने का कोई अर्थ नहीं है। हम फौज किस पर हमला करने के लिए रखें?

पंडित नेहरू राजनीतिक मतभेद रखने वालों के प्रति अनुदार थे। उन्होंने कभी भी सुभाषचंद्र बोस को महत्व नहीं दिया और न ही उनकी मृत्यु के रहस्य से पर्दा उठाने की कोशिश की। सरदार पटेल को वह कभी भी सहन नहीं कर सके। सरदार पटेल की बेटी मणिबेन द्वारा अपनी पिता की जो डायरी लिखी गई है उसमें ऐसे अनेक गहरे मतभेदों का जिक्र हैर्। ंहदुओं के प्रति गहरी वितृष्णा पंडित नेहरू के स्वभाव का एक अंग थी और भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण उनके युग की देन हैर्। ंहदू शरणार्थी विरोधी नेहरू-लियाकत समझौते के खिलाफ नेहरू मंत्रिमंडल के उद्योग मंत्री डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस्तीफा दे दिया था, लेकिन देश के पहले उद्योग मंत्री के नाते बोकारो, भाखड़ा बांध और सिंदरी जैसे कारखानों के लिए कांग्रेस ने कभी भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के प्रति सम्मान नहीं व्यक्त किया। जिन नेहरू को लोकतंत्रवादी कहा जाता है उन्होंने श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला के षड्यंत्र से जेल भेजे गए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय मौत की मजिस्ट्रेट जांच तक नहीं करवाई। ऐसे नेहरू भी धन्य और ऐसी कांग्रेस भी धन्य।

[लेखक तरुण विजय, संसद सदस्य हैं]


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