कुछ बातें नेताओं के पक्ष में
दागी नेताओं का हिसाब-किताब रखने वालों की मानें तो संसद और विधानसभाओं में अभी भी ऐसे नेताओं की अच्छी-
दागी नेताओं का हिसाब-किताब रखने वालों की मानें तो संसद और विधानसभाओं में अभी भी ऐसे नेताओं की अच्छी-खासी संख्या है जिन पर किस्म-किस्म के मुकदमे चल रहे हैं। हाल में केंद्रीय मंत्रिमंडल का जैसे ही विस्तार हुआ, यह सामने आ गया कि मोदी सरकार के दागी मंत्रियों की संख्या भी बढ़कर 21 हो गई है। इसे लेकर न केवल विरोधी दलों ने मोदी सरकार पर हमला बोला, बल्कि दुनिया भर के मीडिया ने यह लिखा कि भारतीय प्रधानमंत्री के इतने मंत्री दागी हैं। चूंकि चुनाव लड़ने वालों को नामांकन पत्र में यह दर्ज करना पड़ता है कि उन पर कितने मुकदमे चल रहे हैं इसलिए यह हिसाब लगाना मुश्किल नहीं कि किस विधायी सदन अथवा सरकार में कितने दागी हैं, लेकिन विधायकों-सांसदों अथवा मंत्रियों के लंबित मुकदमों के आधार पर दागी नेताओं की सही तस्वीर सामने नहीं आ पा रही है। यह मान लेना सही नहीं कि जिसके भी खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं वह अपराधी अथवा आपराधिक प्रवृत्ति का ही है। लोकतंत्र और इसकी गरिमा को खतरा आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं से तो है, लेकिन उन सभी को खतरा नहीं माना जा सकता जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। दरअसल दागी नेताओं को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। अभी ऐसे नेताओं को परिभाषित करने का तरीका एक गलत तस्वीर पेश करता है-न केवल देश में, बल्कि दुनिया में भी।
चूंकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर भी कई मुकदमे चल रहे हैं इसलिए आश्चर्य नहीं कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनकी ओर से नामांकन पत्र दाखिल करते ही वह भी दागी नेताओं की सूची में आ जाएं। केजरीवाल के राजनीतिक तौर-तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि उन्हें दागी नेताओं की सूची में शामिल किया जाए। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संस्था के हिसाब से केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन भी दागी हैं। हाल में केंद्रीय मंत्री बने हंसराज अहीर को भले ही कोयला घोटाले को उजागर करने वाले सूत्रधार के रूप में जाना जाता हो, लेकिन उनके खिलाफ देशद्रोह समेत करीब 20 मामले दर्ज हैं और प्रचलित धारणा के हिसाब से वे संगीन किस्म के दागी हैं। यह जग जाहिर है कि धरना-प्रदर्शन के दौरान और जन समस्याओं के समाधान के लिए आवाज उठाने के क्रम में नेताओें की प्राय: संबंधित अधिकारियों से झड़प हो जाती है। इसका नतीजा उनके खिलाफ किसी न किसी तरह के मुकदमे के रूप में सामने आता है। कई बार ऐसे मुकदमे गंभीर नजर आते हैं, क्योंकि उनके मुताबिक नेता विशेष ने अधिकारी को जान से मारने की भी धमकी दी होती है या फिर वे सरकारी काम में बाधा पहुंचाने वाले करार दिए गए होते हैं। आमतौर पर ऐसे नेता अपने क्षेत्र में खासे लोकप्रिय होते हैं और वे चुनाव भी जीतते रहते हैं। ऐसे नेताओं की जीत पर हैरान होने के बजाय इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या वे वाकई लोकतंत्र के लिए खतरा हैं? यह संभव नहीं कि नेता जनता की समस्याएं समझने-सुलझाने के लिए सड़कों पर उतरें भी और उनके खिलाफ किसी तरह का मामला भी दर्ज न होने पाए। सभी को इससे अवगत होना चाहिए कि हमारे देश में राजनीतिक बदले की भावना से भी विरोधी दलों के नेताओं पर मुकदमे दर्ज कराए जाते हैं और कई बार उनमें अनावश्यक संगीन धाराएं भी जोड़ दी जाती हैं।
जब कहीं दागी नेताओं का उल्लेख होता है तो उसी के साथ करोड़पति नेताओं का भी जिक्र किया जाता है। दागी और करोड़पति होना अलग-अलग बातें हैं, लेकिन अक्सर ऐसी प्रतीति कराई जाती है मानो पहली बुराई नेताओं का दागी होना है और दूसरी उनका करोड़पति होना। जिस तरह लंबित मुकदमों के आधार पर हर नेता को संदेह की नजर से देखना सही नहीं उसी तरह प्रत्येक करोड़पति नेता के मामले में यह मानकर भी नहीं चला जा सकता कि उसने कुछ इधर-उधर करके ही मोटा माल कमाया है। आजकल डेढ़-दो या तीन करोड़ की संपत्ति होना सामान्य बात है। अगर किसी के पास थोड़ी बहुत पैतृक संपत्ति है और उसने किसी बड़े शहर में एक छोटा सा भी मकान बना लिया है तो बहुत आसानी से उसकी कुल चल-अचल संपत्ति एक करोड़ के ऊपर पहुंच जाती है। यह सही है कि कई नेता ऐसे हैं जो राजनीति में सक्रिय होते ही मालामाल हो जाते हैं, लेकिन देश को यह समझने की जरूरत है कि महज करोड़पति होना कोई अवगुण नहीं है। वैसे भी आज ईमानदार छवि वाले तमाम नेता करोड़पति हैं। इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं और रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर भी। खुद केजरीवाल भी करोड़पति हैं। स्पष्ट है कि इस मानसिकता से मुक्त होने की जरूरत है कि वही नेता अच्छा जो फकीर-फक्कड़ हो।
फिलहाल किसी को पता नहीं कि महाराष्ट्र की देवेंद्र फड़नवीस सरकार का संख्याबल क्या है? भाजपा अशिष्ट शिवसेना से उसकी शतरें पर समझौता करने को तैयार नहीं और कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से प्रत्यक्ष समर्थन ले नहीं सकती। सारे निर्दलीय विधायकों को साथ लेने का मतलब है उन सभी को मंत्री बनाना। इसके बावजूद उनके स्थायी समर्थन की गारंटी न मिलना और यह किसी भी तरह से राजनीतिक समझदारी नहीं होगी कि फड़नवीस अपुष्ट बहुमत वाली सरकार चलाते रहें। क्या किसी के पास ऐसा कोई सुझाव है जो नैतिकता की कसौटी पर खरा भी हो और उस पर अमल कर भाजपा अपनी महाराष्ट्र सरकार को मजबूती भी दे सके? नि:संदेह कोई भी यह नहीं चाहेगा कि फड़नवीस सरकार बहुमत का प्रबंध करने के बजाय त्यागपत्र दे दे और नए सिरे से चुनाव कराए जाएं। मौजूदा हालात में फड़नवीस सरकार के पास इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह भाजपा में शामिल होने की इच्छा रखने वाले शिवसेना, कांग्रेस, एनसीपी विधायकों के इस्तीफे दिलाकर उन्हें उपचुनाव में खड़ा करे और फिर उनकी जीत के जरिये अपना बहुमत हासिल करे। शायद सभी को यह तरीका रास न आए, लेकिन और कोई चारा भी नहीं और चारा इसलिए नहीं कि राजनीतिक सुधार ठंडे बस्ते में पड़े हैं।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]