निंदारस
कुछ भारतीय मनीषियों ने विनोदप्रियता का सहारा लेते हुए पर-छिद्रान्वेषण यानी निंदा को निंदारस कहा है।
कुछ भारतीय मनीषियों ने विनोदप्रियता का सहारा लेते हुए पर-छिद्रान्वेषण यानी निंदा को निंदारस कहा है। कारण स्पष्ट है। दूसरे की निंदा और दूसरे की बुराई करने में हमें इतना स्वाद मिलता है, जो कदाचित मनपंसद स्वादिष्ट व्यंजन में भी संभव नहीं। हम प्राय: उनकी निंदा तो करते ही हैं, जिनके प्रति शत्रुभाव रखते हैं, मित्रों को भी नहीं बख्शते और पीठ पीछे उनकी पोलपट्टी बढ़ा-चढ़ाकर खोलते ही रहते हैं। दूसरे के चरित्र पर बना सुई की नोक के बराबर छिद्र भी हमें तत्काल नजर आ जाता है और हम पूरी तत्परता से उसे चौड़ा करने में यानी बढ़ा-चढ़ाकर दूसरों से कहने में व्यस्त हो जाते हैं। बगैर इस बात की परवाह किए कि हममें सामने वाले से कई गुना अधिक कमियां हो सकती हैं, किंतु इस ओर हमारा ध्यान जाता भी नहीं और हम निंदारसपान में व्यस्त रहते हैं।
हालांकि ये अवगुण महिलाओं में भी पाए जाते हैं, किंतु पुरुष भी इनसे पीछे नहीं। निंदारस की व्यापकता यत्र-यत्र सर्वत्र नजर आती है। ऐसा क्यों होता है? दूसरों की निंदा करके बहुधा लोगों को सुखानूभूति क्यों होती है? कहीं, ऐसा तो नहीं कि हमारे मन में स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ दर्शाने की भावना उस समय सूक्ष्म अंहकार के रूप में मौजूद रहती हो? निश्चय ही ऐसा ही है। अंहकार सूक्ष्म-सूक्ष्मतर व छद्मवेशी होता है। इसीलिए हम उसे पहचान नहीं पाते। परिणामस्वरूप उसके मकड़जाल में हम उलझ जाते हैं। दूसरी किसी भी वस्तु को देखने के लिए हमें फासले की जरूरत होती है। आईने में हमें अपनी शक्ल तभी नजर आती है, जब थोड़ा फासला हो। चूंकि हमारा स्वयं से फासला रंचमात्र भी नहीं होता। इसलिए हमें अपनी शक्ल तभी नजर नहीं आती और अगर कोई उधर ध्यानाकर्षण भी करे तो हम अपने ही पक्ष में उल्टे सीधे तर्क जुटा लेते हैं। जबकि दूसरा फासले पर होता है इसलिए उसकी कमियां हमें नजर आ जाती हैं और अहंकार के वशीभूत होकर हम उन्हें निर्ममता पूर्वक उधेड़ने में लग जाते हैं, किंतु सावधान। कहींऐसा न हो कि सामने वाला बुद्धिमान हंसे और अपनी कमियों के प्रति सजग होकर आत्म सुधार में जुट जाए और हम निंदा करके आत्मपतन के मार्ग पर अग्रसर रहें। मनीषी वही है जो दूसरों की कमियों पर ध्यान देने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दें, तभी आत्म-सुधार संभव है।
[अजय गोंडवी]