चुनौती को अवसर में बदलते मोदी
देश की राजनीति बदल रही है। लोकसभा चुनाव से बदलाव का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह जारी है। अस्मिता की रा
देश की राजनीति बदल रही है। लोकसभा चुनाव से बदलाव का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह जारी है। अस्मिता की राजनीति चाहे वह जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या किसी और की हो, लगातार कमजोर पड़ रही है। विकास और रोजगार लोगों की उम्मीद के नए केंद्र हैं। नरेंद्र मोदी उसका प्रतीक बन गए हैं। वह इस बदलाव के उत्प्रेरक हैं। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के लिए संदेश साफ है- सुधरो या हाशिये पर जाने के लिए तैयार रहो। देश का युवा सम्मान के साथ जीना चाहता है। यानी उसे सरकारी खैरात नहीं, रोजगार चाहिए। उसे अपने पर भरोसा है। जरूरत एक अवसर की है। देश के मानस में आए इस बदलाव को नरेंद्र मोदी ने भांप लिया था। एक और नेता है जिसने इस बदलाव को समझा। वह हैं, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक।
भाजपा ने देश में दो ऐसे राज्यों में सत्ता हासिल की है जहां वह मुख्यधारा की पार्टी कभी नहीं रही। उसे हर वर्ग का समर्थन मिला है, किसी का ज्यादा किसी का थोड़ा कम। देश के दलित मतदाताओं का भाजपा की ओर झुकाव सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव है। भाजपा को सामाजिक दृष्टि से सर्व समावेशी पार्टी बनाने की यह शुरुआत है। विकास, शिक्षा और शहरीकरण के विस्तार के साथ ही सामाजिक समरसता बढ़ेगी और जातिगत भेदभाव कम होगा। ऐसे में 1967 में कांग्रेस के कमजोर होने के साथ क्षेत्रीय दलों का जो उभार हुआ था वह अपने विकास की सीमा पर पहुंच गया है। क्षेत्रीय दल अपनी विकास यात्रा में क्षेत्रीयता से एक जाति के दल बने और फिर एक परिवार के। लोकसभा और महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बात की मुनादी हैं कि इस तरह की राजनीति के दिन लद रहे हैं।
क्षेत्रीय दलों को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उन्हें बदलना होगा। यह बदलाव नवीन पटनायक जैसा होगा तो कामयाब होने की संभावना ज्यादा रहेगी। बदलाव के नाम पर नीतीश कुमार की तरह पुराने राजनीतिक ढर्रे की ओर लौटे तो नाकाम होने की आशंका बनी रहेगी। भाजपा के भौगोलिक और सामाजिक विस्तार से पूरी राजनीति नया स्वरूप धारण कर रही है। इसे गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के खात्मे और गैर भाजपावाद की राजनीति की शुरुआत के रूप में देखना अगर गलत नहीं तो अति सरलीकरण जरूर होगा। इतिहास कभी अपने को उसी रूप में नहीं दोहराता। इसलिए राजनीति के केंद्र से कांग्रेस को हटाकर भाजपा को उसी रूप में रखना भूल होगी। कांग्रेस इस बुरी हालत में भी एक सार्वदेशिक पार्टी है। आज से तीन चार दशक पहले यही बात भाजपा या किसी भी और दल के बारे में नहीं कही जा सकती थी। क्षेत्रीय दलों का भविष्य केवल भाजपा के विस्तार की क्षमता और रफ्तार पर ही निर्भर नहीं करता। वह इस बात से भी तय होगा कि कांग्रेस कितनी जल्दी और किस रूप में फिर से खड़ी होती है।
लोकसभा चुनाव के बाद हुए कुछ राज्यों में विधानसभा के उपचुनावों में भाजपा को मिली हार से उसके विरोधियों के मन में उम्मीद जगी थी, लेकिन उनकी यह खुशी क्षणिक साबित हुई। महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की जीत पिछले दिसंबर में मध्य प्रदेश, छत्ताीसगढ़ और राजस्थान की जीत से बड़ी है क्योंकि इन तीनों राज्यों में भाजपा का लंबे समय से मजबूत सांगठनिक आधार है। महाराष्ट्र और खासतौर से हरियाणा इस बात का उदाहरण है कि करिश्माई नेतृत्व क्या कर सकता है। मतदाताओं को नरेंद्र मोदी पर भरोसा तो है ही वे उन्हें पर्याप्त समय भी देने को तैयार हैं। नेता पर लोगों का यकीन बनने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और एक बार बन जाए तो टूटने में लंबा वक्त लगता है। मोदी लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। वह इस समय लोगों की उम्मीद का केंद्र बन गए हैं।
नरेंद्र मोदी के विरोधियों के तीन वर्ग हैं। एक जिनके जेहन में 2002 की उनकी छवि अंकित है। वे उस काल खंड से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। वे मोदी के हर काम को शक की नजर से देखते हैं और उसमें 2002 के मोदी की झलक खोजने की कोशिश करते हैं। उनको इस बात पर यकीन नहीं है कि नरेंद्र मोदी बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि यह बदलाव एक मुखौटा है जो किसी भी समय गिर सकता है। वे टकटकी लगाए देख रहे हैं कि मुखौटा कब गिरता है। मोदी विरोधियों का दूसरा वर्ग वह है जो मानकर चलता है कि मोदी देश के लिए कुछ अच्छा कर ही नहीं सकते। मोदी उन्हें जनतंत्र विरोधी, सामाजिक समरसता विरोधी और न जाने क्या-क्या नजर आते हैं। वे मोदी में एक तानाशाह खोजने के लिए बेचैन हैं। उनका भी अंदाज वही है कि अरे इंतजार तो कीजिए फिर देखिए क्या होता है। वे अपनी राय पर दृढ़ हैं। कोई तथ्य कोई सच्चाई उन्हें अपनी राह से डिगा नहीं सकती। तीसरा वर्ग ऐसे लोगों का है जो नए तथ्यों की रोशनी में अपनी राय बदलने को तैयार हैं। पर मोदी के पक्ष में बोलते ही वे अगल-बगल देखते हैं कि लोगों की प्रतिक्रिया क्या है। वे सच्चाई को स्वीकार करते हैं पर बोलने से झिझकते हैं। उन्हें डर है कि कहीं मोदी समर्थक न मान लिया जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश के मतदाताओं ने उनके विरोधियों के भय से मुक्त कर दिया है। उनकी कार्यशैली की सबसे बड़ी खूबी है परंपरागत लीक से हटकर सोचना और काम करना। किसने कल्पना की होगी कि भाजपा का कोई प्रधानमंत्री गांधी को इस तरह अपना लेगा या जवाहर लाल नेहरू की 125 जयंती मनाने का फैसला करेगा या स्वच्छता अभियान के कार्यक्रम को नेहरू और इंदिरा गांधी के जन्मदिन से जोड़ेगा। दीपावली के दिन श्रीनगर में रहने का कार्यक्रम देखने में सामान्य लग सकता है पर उसका संदेश दूरगामी है। उसका पहला असर यह हुआ कि कश्मीर की दोनों पार्टियों ने इसका स्वागत किया है। इनमें से कोई मोदी समर्थक नहीं है। विकास के बहुत से कार्यक्रमों को राजनीति से अलग रखने और आम लोगों को उससे जोड़ने का प्रयास नरेंद्र मोदी की ताकत को बढ़ाएगा। इसी तरह महाराष्ट्र और हरियाणा में मुख्यमंत्री पद के नाम तय करते समय ईमानदारी को प्राथमिकता देना भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी कानून से ज्यादा प्रभावी कदम है। यह राजनीतिक वर्ग और नौकरशाहों के लिए संदेश भी है और चेतावनी भी।
जो मोदी की पुरानी छवि के आधार पर उनसे लड़ने की कोशिश करेंगे वे हारने के लिए अभिशप्त हैं। मोदी कोई नकारात्मक बात बोल ही नहीं रहे हैं इसलिए उन्हें हराने के लिए उनकी आलोचना की बजाय उनकी हर नीति का बेहतर विकल्प लोगों के सामने रखना पड़ेगा। मोदी की खिल्ली उड़ाकर उनके विरोधी मतदाता की नजर में विदूषक नजर आएंगे। मोदी अटल आडवाणी युग की तरह केंद्र की सत्ता से संतुष्ट होने वाले प्रधानमंत्री नहीं हैं। उन्हें राज्यों में भी अपनी पार्टी की सरकार चाहिए। महाराष्ट्र और हरियाणा में उन्होंने पुराने सहयोगियों की चुनौती को अवसर के रूप में लिया और कामयाब रहे। मोदी राजनीति करने और चुनाव लड़ने के तरीके को ही बदल रहे हैं। राजनीतिक विरोधियों के लिए यह एक चुनौती है। क्या वे इस चुनौती को अवसर में बदल पाएंगे?
[लेखक प्रदीप सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]