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सौ दिन का संदेश

By Edited By: Published: Mon, 08 Sep 2014 05:05 AM (IST)Updated: Mon, 08 Sep 2014 04:53 AM (IST)
सौ दिन का संदेश

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के सौ दिन पूरे कर लिए हैं। हालांकि किसी निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए यह समय बहुत कम है, विशेषकर तब जब मामला एक ऐसे प्रधानमंत्री से जुड़ा हुआ हो जिसे एक बेहद मजबूत और 1825 दिनों के लिए जनादेश मिला हो। बावजूद इसके कुछ निश्चित रुझान, जो सरकार के तौर-तरीके से जुड़े हैं, अब तक सामने आ चुके हैं। कैबिनेट खुद में अभी भी गंभीर रूप से अपूर्ण है, हालांकि कुछ युवा और क्षमतावान मंत्रियों को महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे गए हैं। प्रधानमंत्री के पास गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर साढ़े बारह वषरें का अनुभव है, जहां उनकी अपनी सीमाओं के साथ ही मजबूत पहलूओं पर भी लोगों का ध्यान केंद्रित हुआ। ऐसा होने पर भी जो बात पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है वह यह कि प्रशासन और पार्टी पर उनका अपना पूरा नियंत्रण है। वह एकमात्र आवाज हैं जिसे सुना जाता है और वही महत्व भी रखती है। निश्चित रूप से यह चीज प्रशासनिक कामकाज में साम्यता रखने के साथ ही उसे मजबूती प्रदान करती है, लेकिन यह सत्ता को अत्यधिक केंद्रीकृत भी बनाती है।

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मिनिमम गवर्नमेंट मोदी का ध्येय वाक्य है, लेकिन निश्चित रूप से इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसी सरकार एक व्यक्ति विशेष तक केंद्रित होगी। राज्यों में यह मॉडल काम कर सकता है, लेकिन यह देश के जटिल मामलों के संदर्भ में भी उपयोगी साबित होगा, इसमें संदेह है। क्या भारत जैसा देश वास्तव में एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के हाथों चलाया जा सकता है? क्या कुछ चुने हुए नौकरशाह और टेक्नोक्रेट समूचे राजनीतिक वर्ग को किनारे कर सकते हैं? प्रधानमंत्री ने अभी तक अपना अच्छा-खासा समय विभाजक मामलों से दूरी बनाने में बिताया है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उन्होंने कुछ अन्य लोगों को नुकसान पहुंचाने की छूट दी है। उत्तार प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को भाजपा का मुख्य चुनाव प्रचारक चुनने से उनके इस दावे का खंडन होता है कि वह इस तरह शासन करना चाहते हैं ताकि धु्रवीकरण को बल न मिले। सांप्रदायिक माहौल को हवा देने वाले अपनी पार्टी के कुछ सहयोगियों के भड़काऊ बयानों को लेकर उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साधे रखी। इसी तरह उन्होंने कुछ ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपने कार्यकर्ताओं के व्यवहार पर भी सख्ती नहीं दिखाई जहां अन्य दलों के मुख्यमंत्रियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। कुछ गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी मोदी सरकार और उनके समर्थकों के व्यवहार और उनके बयानों को लेकर असहज होने की बात कही। हालांकि मोदी सहयोग की नई राजनीतिक संस्कृति की जरूरत की बात कहते हैं, लेकिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के दर्जे को लेकर और राज्यपालों के मुद्दे पर वह पक्षपात करने से भी नहीं हिचके।

प्रधानमंत्री ने बार-बार राजनीतिक पैकेजिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग को लेकर अपनी महारत प्रदर्शित की है। उन्होंने संप्रग सरकार द्वारा शुरू की गई तमाम योजनाओं का श्रेय लेने की कोशिश की। उदाहरण के लिए साफ-सफाई, गंगा को प्रदूषण से मुक्त बनाने की योजना, कौशल विकास, वित्ताीय समावेशन अथवा आधार कार्ड के विस्तार जैसे अनेक कार्यक्रम हैं, जो मुख्य रूप से संप्रग सरकार के समय शुरू किए गए थे। उन्होंने महत्वपूर्ण मेगा परियोजनाओं के प्रति भी अपनी खास दिलचस्पी दिखाई है, जिन पर सबका ध्यान गया, लेकिन हो सकता है कि उनमें से तमाम की देश को तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता न हो। उदाहरण के तौर पर उन्होंने अत्यधिक खर्चीली बुलेट ट्रेन पर ध्यान दिया, लेकिन इसके निर्माण में प्रति किलोमीटर 150 से 200 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। प्रधानमंत्री के मुताबिक उनका विश्वास सर्वसहमति द्वारा शासन का संचालन है। यह एक प्रशंसनीय विचार है, लेकिन इस बारे में यदि प्रमाणों की बात करें तो वे बहुत थोड़े हैं। जिस राष्ट्रीय प्रयास की बात वह कहते हैं उस संदर्भ में उन्हें अभी भी समर्थन अथवा सहयोग पाने के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों तक पहुंचना शेष है। संसद में उनकी उपस्थिति भी बहुत कम रही है। मजबूत संसदीय बहुमत को सुधारों को आगे बढ़ाने और संस्थाओं के चरित्र में बदलाव लाने के लिए बहुत अच्छी समझ की जरूरत होती है। पहले से ही न्यायपालिका खतरे में पड़ती प्रतीत हो रही है। प्रधानमंत्री ने अपने सार्वजनिक संवादों और बयानों पर असाधारण नियंत्रण कायम किया है। वह जो कुछ कहना चाहते हैं अथवा संदेश देना चाहते हैं उसे सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त करते हैं। अपनी छवि को चमकाने के संदर्भ में उन्होंने काफी ख्याति हासिल की है।

वर्तमान वित्ताीय वर्ष के प्रथम तिमाही में जीडीपी विकास दर में सुधार का श्रेय उन्होंने अपनी सरकार को दिया है। हालांकि गौर करने वाली बात यह है कि इन तीन महीनों के शुरुआती दो माह में वह सत्ता में ही नहीं थे। मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी एकतरफा संवाद की प्रक्रिया अभी भी जारी है। विचार और पुनर्विचार की प्रक्रिया, सलाह लेना और उदात्ता भाव से अपने विचारों को प्रस्तुत करना, जो कि लोकतंत्र की मुख्य विशेषता है, सिरे से गायब दिखती है। 26 मई को प्रधानमंत्री द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के शासनाध्यक्षों को आमंत्रित करना एक त्रुटिहीन कदम रहा है। निश्चित रूप से नेपाल, भूटान और जापान की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने एक अच्छा माहौल कायम किया। यह परस्पर द्विपक्षीय संबंधों के लिए शुभ संकेत है। हालांकि पाकिस्तान को लेकर उनकी नीति और विदेश सचिव स्तर पर होने वाली वार्ता को अचानक ही रद किए जाने के फैसले में तमाम पहेलियां हैं। डब्ल्यूटीओ पर उनके रुख की सराहना के साथ ही आलोचना भी हुई। क्या जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर भी भारत का रुख ऐसा ही रहेगा। चुनाव अभियानों को उन्होंने अपने दम पर संचालित किया और इस पैमाने पर उनकी सरकार के प्रथम सौ दिन अपेक्षाकृत खामोशी से गुजरे हैं। वैसे यह वह समय होता है जो नई सरकार चीजों को समझने और उन्हें अपने हिसाब से ढालने में खपाती है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धमाका करने वाले मोदी ने अपने शासन की शांत शुरुआत की है।

नि:संदेह प्रधानमंत्री मोदी इस अवधि में अपनी अथॉरिटी अथवा सत्ता स्थापित करने में सफल रहे, लेकिन चुनौती यही है कि बिना एकाधिकार ऐसा कैसे किया जाए। मोदी सरकार के पहले सौ दिन समस्याओं के समाधान के प्रति आश्वस्त कम करते हैं, बल्कि परेशान करने वाले सवाल अधिक पैदा करते हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि अत्यधिक आत्मविश्वासी प्रधानमंत्री एक क्षण के लिए भी रुककर इन सवालों पर ध्यान देने की जरूरत महसूस करेंगे। यह कहना बड़ी बात नहीं होगी कि उन्होंने निर्णायक और एकाधिकारी नेता की अपनी छवि पर नए सिरे से मुहर लगाई है। उनके तमाम प्रशंसकों का यह विचार हो सकता है कि भारत में डंडा हांकने वाली सरकार की जरूरत है, लेकिन यदि मोदी अपने इसी दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं तो संसदीय लोकतंत्र की वे जड़ें कमजोर होंगी जिन्होंने भारत सरीखे विविधता वाले देश को एकजुट रखा है।

[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]


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