गांव में रागनी और सांग की चर्चा आज भी
चर्चा चौपाल की जागरण संवाददाता, बाहरी दिल्ली: दिल्ली देहात में लोगों के मनोरंजन व ज्ञान के प्रम
चर्चा चौपाल की
-दिल्ली देहात में लोगों के मनोरंजन व ज्ञान के हैं प्रमुख स्त्रोत -रागनियों के नाम पर बढ़ती फूहड़ता को लेकर बुजुर्ग ¨चतित
जागरण संवाददाता, बाहरी दिल्ली: दिल्ली देहात में लोगों के मनोरंजन व ज्ञान के प्रमुख स्त्रोत रागनियां और सांग आज भी बुजुर्गों और युवाओं के सिर चढ़कर बोल रहे हैं। इनमें समय के साथ बड़े बदलाव हुए, मगर आज भी बड़े चाव से रात-रात भर जागकर इन्हें देखा सुना जाता है। इतना जरूर है कि चौपालों पर हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच बुजुर्गों की ¨चता रागनियों के नाम पर बढ़ती फूहड़ता को लेकर भी दिखती है। उनकी ¨चता इस बात को लेकर है कि रागनियों के नाम पर परोसी जा रही फूहड़ता कहीं रागनी का मूल स्वरूप ही खत्म न कर दें। गांवों की चौपालों पर बुजुर्ग युवाओं के बीच रागनियों की इस दुर्दशा पर मन की व्यथा कहते दिखाई भी देते हैं।
चौपालों की चर्चा में चर्चित सांग और रागनियों की जानकारी देने वाले यह बुजुर्ग इस धरोहर को सहेजे रखने की नसीहत देते हुए युवाओं से कहते हैं कि यह हमारे देहात की पहचान है। गांव में विभिन्न नामों की चर्चा जैसे धर्म कौर, रघुबीर ¨सह , हूर मेनका , ज्यानी चोर , चन्द्रकिरण , राजा भोज, सरणदे , चाप¨सह ,शाही लकड़हारा , हीर रांझा, सत्यवान सावित्री, भगत पूर्णमल , पदमावत , चीर पर्व , नल दमयन्ती , विराट पर्व , राजा हरिश्चन्द्र , सेठ ताराचन्द, भूप पुरंजन , मीराबाई आदि की रहती है। जयमल फत्ता, अंजना देवी, भरथरी, ¨पगला, चंद्रहास, रूप-बसंत, सरवर नीर, चीरहरण, शकुन्तला, ध्रुव भगत जैसे सांगों का मंचन कैसे होता था और इनसे संस्कृति कैसे जुड़ी हुई है, इन सभी की जानकारी आज के नौजवानों को भी बुजुर्ग देते रहते हैं। बुजुर्ग अपने पूर्वजों से सुनी हुई बातें चौपालों पर युवाओं के साथ साझा करते हुए बताते हैं कि सांग की परंपरा का प्रारम्भ 18 वीं शताब्दी में किशन लाल भाट से माना जाता है। इसके बाद बंसीलाल, मो. अलीबख्श, बालकराम, पं. नेतराम, पं. दीपचन्द, स्वरूप चंद, हरदेवा स्वामी आदि सांगी 19वीं शताब्दी तक इस परंपरा को समृद्ध करते रहे। 20 वीं सदी के प्रारम्भ में बाजे भगत जो श्री हरदेवा के शिष्य थे, एक सुप्रसिद्ध सांगी हुए। इन्होंने सांग कला को न केवल नैतिक एवं सामाजिक ऊंचाईयों के संबंध मे ही समृद्ध किया बल्कि इसमें काव्यात्मक शुद्धता को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। श्री बाजे भगत के समकालीन ही पंडित लखमीचन्द हुए। पंडित लखमीचन्द एवं बाजे भगत की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में खेमचंद, पं. मांगेराम, धनपत ¨सह, रामकिशन व्यास के नाम सर्वविख्यात हैं। वर्तमान समय में अनेकों सांग मंडलियां हैं जो इन्हीं सांगियों की परंपरा को टेलीवि•ान और सिनेमा के युग में जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं।
बुजुर्ग बताते हैं कि रागनी की प्रतियोगिताएं भी पहले बड़े पैमाने पर आयोजित की जाती थीं। हजारों की तादाद में लोग रात भर जागकर रागनियां सुनते तथा सुबह ही प्रतियोगिता समाप्त होती थी । अब वक्त बदल गया है, ऐसे आयोजन होते तो हैं लेकिन संख्या कम होती जा रही है। इनमें दिल्ली देहात के अलावा, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रागनियां बहुत लोकप्रिय हैं।