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'समलैंगिकता को जबरदस्ती रोका तो और फैलेगा' JNU के प्रोफेसर ने कहा

भारत में धार्मिक संस्थाएं क्यों विरोध कर रही हैं, यह समझ से परे है। समाज में इससे कैसे विकृति आ सकती है। जो चोरी-छिपे हो रहा है वह ज्यादा खतरनाक है। इसकी सीमाएं तय होनी चाहिए।

By JP YadavEdited By: Published: Tue, 09 Feb 2016 10:23 AM (IST)Updated: Tue, 09 Feb 2016 11:50 AM (IST)
'समलैंगिकता को जबरदस्ती रोका तो और फैलेगा' JNU के प्रोफेसर ने कहा

नोएडा [ज्ञानेंद्र भारती]। समलैंगिक संबंधों को लेकर अभी ऊहापोह की स्थिति है। भारतीय समाज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है और न ही नकार पा रहा है। पश्चिमी देशों में भी इसे लेकर अभी बहस जारी है, लेकिन समलैंगिक संबंध समाज का एक सच है, इसे स्वीकारना चाहिए।

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यह बात जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय (जेएनयू) के समाज शास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर आनंद कुमार ने जागरण विमर्श में कहीं।

प्रोफेसर आनंद कुमार ने समलैंगिक संबंधों को लेकर सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और नैतिक पहलुओं पर व्यापक चर्चा की। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल से समाज में ऐसे संबंध रहे हैं।

आज भी समाज के कुछ लोगों को ऐसे संबंधों में आनंद की अनुभूति होती है। ऐसे लोग सभी देश, धर्म व समुदाय में हैं। यह उनकी स्वतंत्रता का सवाल है।

इसे अगर किसी भी तरह से रोका गया तो यह छिपे रूप में होगा। इसे रोका नहीं जा सकता है। इसके लिए कुछ राज्यों में शराब बंदी का उदाहरण देकर बताया कि जब इन राज्यों में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो पास के राज्यों से चोरी-छिपे शराब आने लगी। इन्होंने कहा कि पिछले सात-आठ साल पहले यौन शिक्षा पर बहस चल रही थी कि यह उचित है या नहीं। आज अधिकतर पत्र-पत्रिकाएं यौन संबंधी तमाम जानकारी दे रही हैं।

इसी तरह कभी फिल्मों में स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंध को दिखाने के लिए स्त्री-स्त्री और पुरुष-पुरुष को दिखाकर कोई फूल दिखा दिया जाता था, लेकिन आज हालात क्या हैं, कुछ बताने की जरूरत नहीं है।

उन्होंने कहा कि इसमें वैज्ञानिक पक्ष भी देखा जाना चाहिए। पहले बताया गया था कि यह एक बीमारी है, लेकिन बाद में नकार दिया गया कि नहीं यह बीमारी नहीं है।

वैज्ञानिकों की मदद से सच समाज के सामने रखने की जरूरत है। नैतिकता की बात भी की जाती है। कुछ धार्मिक लोगों के बारे में बताया कि वे कैसे इसमें लिप्त रहे? इसलिए ढोंग करने की जरूरत नहीं है।

जो समाज में हो रहा है उसे स्वीकारा जाए। इसका मतलब यह भी नहीं है कि पूरा समाज उन्हें आत्मसात कर ले। उनकी पहचान तो अलग रहेगी ही, बस

उन्हें नौकरी करने, ट्रेन में सफर करने और अपने तरीके से रहने की आजादी मिल जाएगी। इन्होंने यूरोप व अमेरिकी देशों का हवाला दिया कि वहां चर्च इसके खिलाफ थे, लेकिन अब समलैंगिक शादियां करा रहे हैं।

भारत में धार्मिक संस्थाएं क्यों विरोध कर रही हैं, यह समझ से परे है। समाज में इससे कैसे विकृति आ सकती है। जो चोरी-छिपे हो रहा है वह ज्यादा खतरनाक है। इसकी सीमाएं तय होनी चाहिए।

एक दायरे में जो जैसे रहना चाहता हैं रहें। इससे दूसरे लोग प्रभावित नही हो सकते हैं, क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है।

वैवाहिक संस्थाएं भी इसीलिए बनाई गईं, लेकिन जरूरत है कागद लेखी के बजाय आंखन देखी पर भरोसा किया जाय। वे स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं, बराबरी की नहीं।

उन्होंने बताया कि आज 118 देशों में इसे कानूनी मान्यता मिल चुकी है, भारत समेत 39 देशों में अभी बहस चल रही है।


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