मौत के 10 साल बाद भी सजा से नहीं मिली मुक्ति
बिलासपुर [निप्र]। चोरी-छिपे शराब बेचने वाले आरोपी को मौत के 10 साल बाद भी सजा से मुक्ति नहीं मिली। परिजनों ने सीजेएम द्वारा सुनाई गई एक साल की सजा और 25 हजार जुर्माने के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील पेश की थी। सुनवाई उपरांत हाई कोर्ट ने भी सीजेएम के फैसले पर मुहर लगाते हुए कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसमें मौत के आरोपी को सजा से बरी कर दिया जाए।
दुर्ग निवासी गोरखनाथ नाई को आबकारी विभाग ने मुखबिर की सूचना पर 2 मई 2002 को 310 पाव अंग्रेजी शराब [50 लीटर] अवैध रूप से ले जाते पकड़ा था।
शराब जब्त करने के बाद आबकारी अधिनियम 1915 के तहत प्रकरण पंजीबद्ध करते हुए मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी [सीजेएम] दुर्ग के कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया गया था। मामले की सुनवाई के बाद सीजेएम ने 26 अगस्त 2002 को छत्तीसगढ़ आबकारी एक्ट 1915 की धारा 34 [2] के तहत 25 हजार पए जुर्माना और एक साल की सजा सुनाई। निचली अदालत के फैसले के बाद गोरखनाथ ने हाईकोर्ट में जमानत के लिए आवेदन लगाया था।
कोर्ट ने जमानत देते हुए पट्टा पेश करने कहा था। कोर्ट के आदेश पर परिजनों ने जमीन का पट्टा पेश कर जमानत ले ली थी। जमानत अवधि में गोरखनाथ ने सीजेएम के फैसले को चुनौती देते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के कोर्ट में अपील प्रस्तुत की थी। 26 अक्टूबर 2002 को प्रकरण की सुनवाई करते हुए उन्होंने सीजेएम के आदेश को यथावत रखते हुए अपील खारिज कर दी थी। इस बीच गोरखनाथ की मृत्यु हो गई। मामला हाईकोर्ट में चलता रहा। गोरखनाथ की मृत्यु के बाद परिजनों ने मौत का हवाला देते हुए गोरखनाथ की सजा समाप्ति की गुहार लगाई थी। यह मामला जस्टिस संजय के अग्रवाल की एकलपीठ में लगा हुआ था।
मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस अग्रवाल ने परिजनों की अपील को खारिज कर दिया है। जस्टिस अग्रवाल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397/401 का हवाला देते हुए कहा कि सिद्धदोष व्यक्ति द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397/401 के अधीन प्रस्तुत दांडिक पुनरीक्षण का उपशमन उसकी मृत्यु पर नहीं होता है, क्योंकि ऐसा कोई सांविधिक प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता [सीआरपीसी] में नहीं है।
जस्टिस अग्रवाल ने इस बात का खुलासा किया है कि ऐसी स्थिति में तब और भी दांडिक पुनरीक्षण का उपशमन नहीं होता, जबकि संबंधित व्यक्ति को जुर्माने से दंडित किया गया हो।