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ग्राहकों को बैंकों से बचाने की जरूरत

आजकल बैंक जिस तरह काम कर रहे हैं उसे देखते हुए इस तरह के मूलभूत सवाल पूछे जाने चाहिए। आरबीआइ के अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए कोई भी व्यक्ति उससे कुछ करने की अपेक्षा नहीं कर सकता। हमें अमेरिका की उस एजेंसी की तरह ही एक स्वतंत्र एजेंसी की आवश्यकता है जिसने वैल्स फार्गो की जांच की।

By Monika minalEdited By: Published: Mon, 19 Sep 2016 10:26 AM (IST)Updated: Mon, 19 Sep 2016 10:31 AM (IST)
ग्राहकों को बैंकों से बचाने की जरूरत

बाजार पूंजी के हिसाब से अमेरिका के सबसे बड़े बैंक वैल्स फार्गो पर 18.5 करोड़ डॉलर (करीब 1200 करोड़ रुपये) का जुर्माना लगाया गया है। उसके कर्मचारी पिछले पांच साल से एक घोटाला कर रहे थे। उनके घोटाला करने की वजह काफी ऊंचा बिक्री का लक्ष्य था। वैल्स फार्गो के कर्मचारी योजनाबद्ध तरीके से मौजूदा ग्राहकों के फर्जी अतिरिक्त खाते बना रहे थे। वे फर्जी तरीके से ग्राहकों को गुमराह करने के लिए उनके कंप्यूटर सिस्टम में अलग- अलग तरह के तरीके अपनाते थे। मसलन उनके डेबिट कार्ड के पिन बदल देना या फर्जी ईमेल पते का इस्तेमाल करना। जो फर्जी खाते जोड़े जा रहे थे वे क्रेडिट कार्ड, बचत खाते या निवेश सेवाओं से संबंधित हो सकते थे।

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कर्मचारी असल में ग्राहकों के मौजूदा खाते से नए खातों में पैसे का आदान-प्रदान कर रहे थे। वे या तो फीस जमा करने के या जमा राशि दिखाने के लिए ऐसा कर रहे थे। उनकी इस करतूत के चलते बहुत से खातों में न्यूनतम बैलेंस आवश्यक राशि से भी कम हो गया जिसके चलते ग्राहकों पर जुर्माना लग गया और बैंकों ने यह जुर्माना ग्राहकों के फंड से काट लिया। अगर कोई व्यक्ति इस संबंध में अमेरिकी मीडिया में छपी खबरों को विस्तृत ढंग से पढ़े तो यह सब जानकार एक आश्चर्य होता है कि यह कोई बड़ा षडयंत्र नहीं था। इस तथ्य के बावजूद कि 5300 कर्मचारी दोषी पाए गए हैं और बर्खास्त किए जा चुके हैं, ऐसा लगता है कि वे सभी सिर्फ अपनी इच्छा से ही ऐसा कर रहे थे। असल में बैंकों ने ऐसी प्रवृत्तियों को पहले तो प्रोत्साहित किया और बाद में इस बात से आंखें मूंद लीं कि कर्मचारी अपने टारगेट को कैसे पूरा कर रहे हैं।

जांचकर्ताओं को विश्लेषण के बाद यह भी पता चला कि इससे कर्मचारियों ने इस योजना से पैसा नहीं बनाया क्योंकि उन्हें तो नौकरी कायम रखने के लिए टारगेट पूरे करने थे। खास बात यह है कि बैंक भी कुछ खास पैसा नहीं कमा पाए क्योंकि इन फर्जी खातों में कोई वास्तविक गतिविधि नहीं हो रही थी। बड़ी संख्या में खातों के बावजूद भी फाइन के रूप में जुटाई गई राशि काफी कम थी। कुल मिलाकर पांच साल की अवधि में 20 लाख से अधिक फर्जी खाते बनाए गए। इससे भी दुखद तथ्य यह है कि निवेश विशेषज्ञों को इस पूरे घटनाक्रम से बैंकों की सेहत पर कोई असर पड़ता दिखाई नहीं देता है क्योंकि फाइन के रूप में जो राशि जुटाई गई वह 23 अरब डॉलर की बैंक की आय का मात्र एक फीसद थी। वास्तव में यह सबको पता है कि कई भारतीय बैंकों के ग्राहकों को भी इस तरह का अनुभव हुआ है। कुछ हफ्ते पहले मैंने एक लेख लिखा था कि किस तरह भारतीय बैंक ग्राहकों की जेब पर डाका डालते हैं। कॉलम प्रकाशित होने के बाद मेरे पास बड़ी संख्या में बैंक ग्राहकों के ईमेल आए जो हो सकता है कि पीड़ित हों। वे भी ऐसा ही अनुभव सुना रहे थे। कई बेकार, उच्च कमीशन वाले उत्पादों को बेचने के लिए फर्जी दस्तखत करने के मामले भारत में आम बात है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसे कुछ मामले समय-समय पर सुलझा लिए जाते हैं लेकिन रिजर्व बैंक ने कभी यह जानने में रुचि नहीं दिखाई है कि क्या ऐसा व्यापक स्तर पर हो रहा है। जब किसी बैंक में ऐसा मामला सामने आता है तो क्या ऐसा नहीं है कि यह संस्थागत वजह से या प्रोत्साहन की वजह से हो। संभव है कि इस तरह के और भी मामले हों। अमेरिका के कंज्यूमर फाइनेंशियल प्रोटेक्शन ब्यूरो की अपेक्षा हमारे यहां बैंकिंग नियामक ने यह पता करने में रुचि नहीं दिखाई है। जैसा कि मैंने पिछले कॉलम में लिखा था। मूल समस्या यह है कि बैंकों को ग्राहकों के खाते से पैसा निकालने की अनुमति है। वे जब चाहें, तब ऐसा करते हैं। किसी अन्य कारोबार में जब धन अपेक्षा होती है तो वे आपसे धन देने को कहते हैं और उसके बाद आप धन का भुगतान करते हैं। इसके उलट बैंकों को जब भी आप से कुछ चार्ज करना होता है वे बस आपके खाते से पैसा निकाल लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों है? दूसरे कारोबार की तरह बैंक क्यों नहीं ऐसा कर सकते कि वे आपको बिल भेज दें और आप उन्हें भुगतान कर दें। मुझे ऐसा न करने के पीछे कोई वजह दिखाई नहीं देती है। सिवाय इसके कि हमने उन्हें अपने धन की हिफाजत के लिए रखा है। एक बैंक नियामक है जिसे ग्राहकों की फिक्र ही नहीं है।

आजकल बैंक जिस तरह काम कर रहे हैं उसे देखते हुए इस तरह के मूलभूत सवाल पूछे जाने चाहिए। आरबीआइ के अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए कोई भी व्यक्ति उससे कुछ करने की अपेक्षा नहीं कर सकता। हमें अमेरिका की उस एजेंसी की तरह ही एक स्वतंत्र एजेंसी की आवश्यकता है जिसने वैल्स फार्गो की जांच की। ऐसी ही एजेंसी हमारे यहां ग्राहकों के हितों की रक्षा कर सकेगी।

- धीरेंद्र कुमार


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