खरीदारों के लिए रियल एस्टेट में अब भी मुश्किलें, पढ़िए एक्सपर्ट की राय
मकान खरीदारों की 3.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम अधूरी परियोजनाओं में फंसी है।
नई दिल्ली (धीरेंद्र कुमार, सीईओ, वैल्यू रिसर्च) मैंने 2016 के शुरू में इसी कॉलम के अंतर्गत एक लेख लिखा था। उस लेख की शुरुआत कुछ इस तरह की गई थी कि भारत के रियल एस्टेट कारोबार को संकटग्रस्त उद्योग के रूप में न देखकर एक अपराध स्थली के तौर पर देखा जाना चाहिए। तब से 18 महीनों में रियल एस्टेट रेगुलेशन बिल पारित हुआ। इसके बाद राज्यों में भी इस संबंध में बिल पास हुए। वैसे तो नए नियमों को अतीत की समस्याओं को दोबारा होने से रोकना चाहिए, लेकिन आज जो कानून है वह पुरानी समस्याओं की रोकथाम के लिए नाकाफी है। यही वजह है कि भारत का रियल एस्टेट उद्योग अब भी एक अपराध स्थली बना हुआ है।
उस समय, मैंने एक अनुमान लगाया था कि मकान खरीदारों की 3.5 लाख करोड़ रुपये की रकम अधूरी परियोजनाओं में फंसी हो सकती है। वास्तव में यह राशि अब अधिक होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि उस समय से ऐसी परियोजनाओं में जान फूंकने के लिए व्यावहारिक रूप से कोई प्रगति नहीं हुई है। हालांकि, ऐसे खरीदार जिन्होंने बैंक लोन ले रखा है, वे अब भी ईएमआइ का भुगतान कर रहे हैं। मजबूरी यह है कि वे भुगतान बंद नहीं कर सकते हैं क्योंकि देनदारी उनकी है। अगर खरीदार ऐसा करते हैं तो साख उन्हीं की प्रभावित होगी। यह एक अजीब स्थिति है। कहें तो यह बैंकों के फंसे कर्ज (एनपीए) के संकट को बढ़ने से रोकती है। लेकिन वास्तव में यह एनपीए संकट ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि पैसे का मार्ग ऐसा है कि यह एनपीए जैसा दिखता नहीं है। मकान खरीदार बैंक लोन के लिए उत्तरदायी हैं, लेकिन वे पैसे डेवलपर्स की तिजोरी में डाल चुके हैं। डेवलपर्स कुछ डिलीवर नहीं कर रहे हैं। इस लिहाज से ‘नॉन-परफॉर्मिग एसेट’ वास्तव में गैर-मौजूद संपत्ति है जिसका खरीदार इंतजार कर रहे हैं!
कॉरपोरेट एनपीए के मामले में तो बैंक और नई शक्तियों से लैस रिजर्व बैंक समस्या को किसी न किसी तरह से निपटा लेंगे। लेकिन रियल एस्टेट के मामले में मकान खरीदार डेवलपर्स से कुछ भी निकाल पाने में असमर्थ हैं। कॉरपोरेट एनपीए के उलट यह एक ऐसी समस्या है जो हजारों डेवलपर्स और लाखों खरीदारों से जुड़ी है। यह समस्या इसलिए भी कम दिखाई देती है क्योंकि रियल एस्टेट रेगुलेशन राज्यों का मामला है। अब तक राज्यों का रवैया ढुलमुल रहा है। रियल एस्टेट उद्योग खुद को परिस्थितियों और खराब आर्थिक हालातों का शिकार बताता आया है। जबकि सच यह है कि ज्यादातर बिल्डरों ने पोंजी स्कीम चलाने जैसा काम किया है। इन्होंने एक परियोजना के लिए धन जुटाया। फिर इसका इस्तेमाल अगला प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए किया। एक जगह आकर इसे खत्म होना ही था।
सवाल उठता है कि अब क्या? इसके लिए राज्य सरकारों को बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाना होगा। तमाम तरह की फंसी परियोजनाएं हैं। कुछ में काम शुरू ही नहीं हुआ तो कुछ में 90 फीसद काम हुआ है। सभी की अलग कहानी है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि बिल्डर खरीदारों का पैसा हजम कर चुके हैं और अब काम को पूरा करने में असमर्थ हैं। इन पर स्थानीय प्राधिकरणों, आपूर्तिकर्ताओं, ठेकेदारों और अन्य संस्थाओं का पैसा बकाया है। यह सही है कि खरीदार प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए भुगतान कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उनका भरोसा बिल्डर पर उठ चुका होता है, जो शायद सही भी है।
हमें जिस चीज की जरूरत है वह है एक कानूनी मार्ग ताकि ये प्रोजेक्ट किसी न किसी तरह से प्रशासन के तहत आएं और इनका काम शीघ्रता से पूरा हो। अगर इसके लिए किसी कानून को बनाने की आवश्यकता पड़ती है तो उसे बनाया जाना चाहिए। यदि यह नए बैंक्रप्सी कानून में संशोधन के जरिये किया जा सकता है तो वह मार्ग भी चुना जा सकता है। कुल मिलाकर केंद्र और राज्य की सरकारों को यह एहसास होना चाहिए कि यह एक विशेष समस्या है और इसके लिए खास कानूनी प्रावधानों की आवश्यकता हो सकती है।