महज एक बांध के चलते नदी हर साल मचाती तांडव
सुपौल। तकरीबन डेढ़ दशक से चुनावी वादों के भरोसेमंद रहे सुरसर किनारे वासियों की समस्या जस की तस बनी ह
सुपौल। तकरीबन डेढ़ दशक से चुनावी वादों के भरोसेमंद रहे सुरसर किनारे वासियों की समस्या जस की तस बनी हुई है। नदी का जगह जगह से टूटा तटबंध किनारे की बड़ी आबादी को व्यापक पैमाने पर क्षति पहुंचा रही है।
प्रत्येक मानसून सत्र में सुरसर का प्रकोप इस हद में होता है कि उपजाऊ भूमि तो निवाला बनती ही है कई बस्तीवासियों के दिन का चैन और रात की नींद उड़ जाती है। इस समस्या से अनुमंडल क्षेत्र के दर्जनों पंचायत प्रभावित हैं। नदी जिन जिन पंचायतों से होकर गुजरी है मानसून सत्र में किनारे की आबादी को त्राहिमाम की स्थिति होती है। छातापुर प्रखंड के उत्तरी छोर से लेकर त्रिवेणीगंज के कोरियापट्टी व तमकुलहा होकर निकली नदी हर वर्ष फसलों को नुकसान पहुंचाते हुए किनारे की उपजाउ भूमि को कटाव की जद में लेती रही है। बरसात के समय किनारे की बड़ी आबादी विभीषिका झेलने को विवश
होती है और जानोमाल की क्षति भी उठानी पड़ती है। सरकारी स्तर से हुई थी कवायद शोक की इस स्थिति के मद्देनजर 80 के दशक में सूबे की सरकार गंभीर हुई और वृहद पैमाने पर हो रही क्षति से निजात दिलाने के उद्देश्य से नदी को बाधने की कवायद की गयी। अररिया जिले के सीमावर्ती क्षेत्र से त्रिवेणीगंज प्रखंड के तमकुलहा पुल तक सुरसर के दोनों किनारे तटबंध का निर्माण हुआ। निर्माण के साथ पटवन का ख्याल रखते हुए जगह जगह सीवर पाइप भी लगाये गये। वहीं पारगमन की बड़ी समस्या के निदान को लेकर लाखों की लागत से लंबे- लंबे दो काष्ठ पुल का निर्माण भी कराया गया। चुन्नी व प्रतापपुर के काष्ठ पुल की लंबाई आज भी लोगों के जेहन में कैद है। काष्ठ पुल को जीर्णोद्धार के कई दौर से गुजरना पड़ा और आखिरकार चुन्नी में आरसीसी पुल वजूद में आया। तटबंध निर्माण के लिए भूमि का अधिग्रहण हुआ और संबंधित किसानों को मुआवजे का भुगतान भी किया गया। डा.जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमंत्रीत्व काल में हुए तटबंध निर्माण के बाद क्षेत्रीय किसान सहित एक बड़ी आबादी ने राहत की सास ली थी।
- खुशहाली की राह दे रहा दर्द का सिला
नदी को तटबंध में कैद कर दिये जाने के बाद किसान सहित किनारे की बड़ी
आबादी खुशहाली की राह पर अग्रसर हुई। कृषि क्षेत्र में उन्नति होने लगी। पाट से लेकर रबी व अगहनी से लेकर सरसों की पारंपरिक खेती किसानों के लिए समृद्धि का द्वार खोल ही रही थी कि चंद वर्षो बाद से ही इस पर ग्रहण लगना शुरू हो गया। स्वभाव के अनुरूप कोसी के इस उपनदी ने तटबंध में सेंध लगाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते तटबंध कई स्थानों
पर क्षतिग्रस्त हो गया। प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर जननेताओं तक से गुहार लगाने के बाद ना किसी ने सुधि ली और ना ही मरम्मत की दिशा में पहल हो पाया। नतीजा रहा कि खुले क्षेत्र में फैलता रहा नदी का पानी अब
क्षतिग्रस्त स्थलों से बाहर आने लगी और मुहाने बसे आबादी और फसलों
को व्यापक नुकसान पहुंचा रही है। साल दर साल कटान स्थलों के साथ
नेताओं के आश्वासनों का दायरा भी बढ़ता गया और रही सही कसर कुसहा
त्रासदी ने पूरी कर दी। वर्तमान हालात हैं कि दर्जनों स्थल पर तटबंध अपने वजूद को तरस रहा है और मानसून काल में कटान स्थलों से बाहर निकलता नदी का वेग उपजाउ भूमि व बस्तियों को तबाह कर रहा है। प्रभावित निवासियों की मानें तो वर्तमान स्थिति से बेहतर पूर्व का समय था जब तटबंध नहीं था। कहते हैं कि उस समय नदी का पानी दोनों किनारे से
विस्तारित होता था और ''खास'' जगह के लोग प्रभावित नहीं होते थे।
बताया कि अब तो यह स्थिति है कि दर्जनों टूटान स्थल के आगे की आबादी
को व्यापक बर्बादी झेलने को बाध्य होना पड़ता है।
- हजारों की आबादी हो रही प्रभावित
छातापुर प्रखंड के ठुठी पंचायत से लेकर भीमपुर, जीवछपुर, माधोपुर,
रामपुर, झखाड़गढ, चुन्नी, महम्मदगंज, राजेश्वरी पश्चिमी सहित त्रिवेणीगंज प्रखंड के कोरियापट्टी से खूंट होते हुए तमकुलहा तक के नदी किनारे की आबादी को प्रतिवर्ष जानोमाल की क्षति उठानी पड़ रही है। वहीं कटान स्थलों के मुहाने की सैंकड़ों एकड़ भूमि लगायत सामने की बस्तियों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। यही कारण है कि झखाड़गढ, चुन्नी व छातापुर के सीमा पर स्थित महादलितों की बस्ती नदी के प्रकोप से बचने के लिए तटबंध के उंचे स्थल की ओर खिसकती जा रही है। हाल के दिनों में ड्रेनेज विभाग से नदी के पाच कटान स्थलों को चिन्हित कर कटाव निरोधी कार्य चलाए गए। लेकिन विडंबना है कि चलाया गया निरोधी कार्य उंट के मुंह जीरा समान साबित हुआ और स्थिति पुनर्मुसिको भव: वाली हो रही है।