मजदूर दिवस : डेढ़ सौ की दिहाड़ी में कैसे चले परिवार, बच्चों को पढ़ाना तो सपना
सीतामढ़ी। सरकार न्यूनतम मजदूरी की दर भले ही घोषित कर दे लेकिन उसके अनुसार कामगारों को मजदूरी कहीं नह
सीतामढ़ी। सरकार न्यूनतम मजदूरी की दर भले ही घोषित कर दे लेकिन उसके अनुसार कामगारों को मजदूरी कहीं नहीं दी जाती है। बिहार में रोजगार की स्थिति इतनी खराब है कि यहां कम पैसे में लोग काम करने को तैयार हो जाते हैं। इसका फायदा व्यवसायी और दुकानदार उठाते हैं। वे अपने अनुसार उन्हें पैसे का भुगतान करते हैं। जहां भी हिसाब-किताब रखने की बात हो वहां उनसे पूरे वेतन पर हस्ताक्षर कराया जाता है। लेकिन दिया उससे कई गुणा कम दिया जाता है। हमने शहर की कुछ दुकानों पर काम करने वाले लोगों से बातचीत की तो पता चला कि वे इतने पैसे भी नहीं पाते हैं कि उनका परिवार ढंग से चल सके। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और बीमारी की स्थिति में उन्हें कर्ज का ही आसरा रहता है।
संदीप कुमार (बदला हुआ नाम) शहर के गुदरी बाजार की एक बड़ी किराना दुकान में काम करते हैं। उन्हें हर दिन डेढ़ सौ रुपये के हिसाब से महीने में साढ़े चार हजार रुपये मिलते हैं। जिस दिन नहीं आए उस दिन का डेढ़ सौ रुपया कट जाता है। जबकि उन्हें काम हर दिन कम से कम 10-12 घंटे करना पड़ता है। सुबह नौ बजे दुकान खुल जाती है। शाम को साढ़े आठ-नौ बजे बंद होती है। वे दिन भर सामान तौलते हैं। स्टोर से निकालकर ग्राहकों को देते हैं। कहते हैं कि इतने पैसे में परिवार बहुत मुश्किल से चलता है। बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। बीमार होने पर कर्ज का ही आसरा रहता है।
सिनेमा रोड के इलेक्ट्रॉनिक्स दुकान में काम करने वाले सुजीत कुमार (बदला हुआ नाम) हर दिन दो सौ रुपये कमाते हैं। काम कम से कम 12 घंटों का है। इन पैसों से वे अपने मां-बाप की मदद करते हैं। अभी शादी नहीं हुई है इसलिए उनके ऊपर जिम्मेवारी नहीं है। लेकिन आगे इतने पैसे से उनका काम नहीं चलने वाला।
गीता देवी (बदला हुआ नाम) एक डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करती हैं। वे सुबह दस बजे से रात के आठ बजे तक 11 घंटे काम करती हैं। उन्हें भी दो सौ रुपये के हिसाब से मेहनताना मिलता है। उनके ऊपर घर चलाने की जवाबदेही है। सुबह-सुबह बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजना और खाना बनाकर रखना उनका काम है। उनके पति भी एक दुकान में काम करते हैं। दोनों मिलकर किसी तरह घर चलाते हैं।