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बाजार पर चढ़ा होली का रंग

जासं, समस्तीपुर : होली को लेकर बाजार रंग, गुलाल और पिचकारी से पटा गया है। खरीदारों की भीड़ बाजार

By Edited By: Published: Wed, 04 Mar 2015 01:11 AM (IST)Updated: Wed, 04 Mar 2015 03:32 AM (IST)
बाजार पर चढ़ा होली  का रंग

जासं, समस्तीपुर : होली को लेकर बाजार रंग, गुलाल और पिचकारी से पटा गया है। खरीदारों की भीड़ बाजार में उमड़ पड़ी है। होली ने बाजार का रोनक बढ़ा दिया है। कोई पिचकारियां खरीदने में व्यस्त है तो कोई पापड़ और रंग-बिरंगे चिप्स व दहीबाड़ा की सामग्री खरीदने में व्यस्त है। महंगाई के बावजूद पर्व के प्रति लोगों के उल्लास पर कोई खास असर नजर नहीं आ रहा है। देशी पिचकारियों की तुलना में इस बार फिर से चाइनीज पिचकारियों की अधिक मांग है। दुकानदारों का कहना है कि पिछले साल की अपेक्षा इस वर्ष साल पिचकारियों व मुखौटों आदि पर महंगाई बढ़ी है। बावजूद इसके बाजार में उछाल है। लोग उत्साह के साथ पिचकारियों की खरीदारी कर रहे हैं। रंगों के बाजार में भी रोनक छाया हुआ है। पिचकारियों और मुखौटों की खास डिमांड को देखते हुए दुकानदारों ने“बच्चों के लिए कई तरह की पिचकारियों की भी व्यवस्था कर रखी है। बाजार में 10 रुपये से लेकर 200 रुपये तक की रेंज में पिचकारी उलब्ध है।

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लोगों को ललचा रही जायकेदार चीज

इस बार बाजार में स्वाद का जायका बदला हुआ है। रेडीमेड चिप्स, पापड, तरह-तरह के नमकीन के अलावा इमरती और विभिन्न प्रकार की मिठाइयां भी बिक रही हैं। समय के अभाव और बदलते परिवेश के कारण लोग भी अब इन वस्तुओं के प्रति खासे आकर्षित हो रहे हैं। बाजार में 10 रुपये पैकेट से लेकर 50 रुपये पैकेट के दाम में स्वादिष्ट और विभिन्न प्रकार के चिप्स उपलब्ध हैं।

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बदल रहा होली का रंग

भारत में होली का स्वरूप बदल रहा है। सामुदायिक त्योहार की पहचान रखने वाला यह उत्सव धीरे-धीरे जाति और समूह के दायरे में बंट रहा है। इसकी प्राचीन परंपराएं भी तेजी से खत्म हो रही हैं। पहले ¨हदी भाषी प्रदेशों में फागुन का महीना चढ़ते ही फिजा में होली के रंगीले और सुरीले गीत तैरने लगते थे। इनको स्थानीय भाषा में फाग या फगुआ गीत कहा जाता है। कोई महीने भर बाकायदा इनकी महफिलें जमती थीं। शहरों में भी ढोल-मजीरे के साथ फगुआ के गीत गाए जाते थे। लेकिन समय की कमी, बदलती जीवनशैली और कई अन्य वजहों से शहरों की कौन कहे, गांवों में भी यह परंपरा दम तोड़ रही है। पहले होली के मौके पर शहरों में महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते थे और पंपलेट व पोस्टर के जरिए लोगों को उपाधियां दी जाती थीं। अब यह परंपरा भी आखिरी सांसें ले रही है। होली के मौके पर बनने वाली ठंडई और भांग की जगह अब अंग्रेजी शराब ने ली है।

फागुन की महफिल का अंदाज भी बदला

बदलते दौर में खास कर ग्रामीण इलाकों में भी फागुन का अंदाज बदलने लगा है। एक दशक पहले तक माघ महीने से ही गांव में फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी लेकिन, आज के जमाने में फाल्गुन माह में भी गांव से ऐसी महफिलें लगभग गायब हो गई हैं। इस समय वसंत की अंगड़ाई, जहां-तहां खिलने वाले फूल और पछुआ यानी पश्चिम दिशा से बहने वाली हवाओं की सरसराहट फागुन का साफ संकेत दे रही हैं। लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में हमारी परंपराएं सिसकने लगी हैं। फागुन के महीने में शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को कान तरस गए हैं। फाग का सदियों पुराना राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों पर भी गुम हो गया है।

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इनसेट :

सांप्रदायिक सदभाव का मिशाल रहा है होली

जासं, समस्तीपुर : होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक अत्यंत प्राचीन पर्व है। यह सांप्रदायिक सछ्वाव का पर्व रहा है। इतिहास इसका गवाह है। अनके मुस्लिम कवियों ने भी अपनी रचनाओं में होली का वर्णन किया है। अकबर से लेकर अंतिम मुगलबादशाह बहादुर शाहजफर तक के द्वारा होली खेलने का प्रमाण इतिहास दे रहा है। इस पर्व को होली, होलिका या होलिका नाम से मनाया जाता था। यह पर्व ¨हदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गा‌र्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। ¨वध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल ¨हदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदा•ा ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के •ामाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह •ाफ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16 वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है।16 वीं शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्ति चित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। 17 वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदांत के ¨सहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएं गुलाल मल रही हैं। भगवान नृ¨सह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध होली के पर्व से अनेक कहानियां जुड़ी हुई हैं।


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