दुनिया बदलने निकले हैं ये पांच मतवाले
ऐसे दौर में जब इंसान की शिकायत है कि उसे खुद के लिए भी वक्त नहीं मिल पाता।
ऐसे दौर में जब इंसान की शिकायत है कि उसे खुद के लिए भी वक्त नहीं मिल पाता, कुछ लोग दुनिया बदलने निकले हैं। कोई गरीबों के लिए रोटी जुगाड़ कर रहा है, तो कोई लावारिस मरीजों के लिए खाना। कोई अनजानों की मदद के लिए खून मांग रहा है, तो कोई कंक्रीट के शहर को हरा बनाने पर तुला है। इन मतवालों की सोच शहर की सूरत और सीरत दोनों बदल रही है। पढि़ए सुधीर की रिपोर्ट।
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ऋषिकेश की कोशिश कि कोई भूखा न सोए
फुटपाथ पर भूखे सोने वालों के लिए ऋषिकेश नारायण किसी फरिश्ते से कम नहीं। पिछले एक माह से वह पटना में 'रोटी बैंक' चला रहे हैं। इसके जरिए वे खुद भूखे लोगों तक पहुंचकर उन्हें रोज रात खाना देते हैं। उनके अभियान से करीब दर्जन भर अन्य युवा भी सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। मुहिम से प्रभावित होकर कई लोग अपने बर्थडे या अन्य दूसरे मौकों पर भोजन देने की पेशकश कर रहे हैं। ऋषिकेश लोगों से मदद के रूप में पैसा स्वीकार नहीं करते। वे सिर्फ रोटी या कोई भोजन ही मांगते हैं, जो भूखों के बीच बांटा जा सके।
इसके अलावा ऋषिकेश गरीब और असहाय बच्चों के लिए 'ज्ञानशाला' भी चलाते हैं। खुदाबख्श लाइब्रेरी के पास हर शाम वह ऐसे बच्चों को पढ़ाते मिलेंगे। इनमें ऐसे बच्चे होते हैं, जो कुछ दिन पहले तक कूड़ा चुनते थे या दिन भर आवारागर्दी करते थे। ऋषिकेश ने कूड़ा चुनने वाले हाथों में कलम, कॉपी, किताब पकड़ा दी। 2014 में स्लम के बच्चों को पढ़ाने का अभियान ज्ञानशाला के नाम से शुरू किया। शुरुआत हुई अदालतगंज के स्लम से। असामाजिक तत्वों ने वहा परेशानी पैदा करने की कई कोशिशें कीं, लेकिन ऋषिकेश के जुनून के आगे सब पीछे चले गए। शहर के हर स्लम में एक ज्ञानशाला चलाने की इच्छा रखने वाले ऋषिकेश करीब डेढ़ साल से खुदाबख्य लाइब्रेरी के पास ज्ञानशाला चला रहे हैं। वहा प्रतिदिन कक्षा चलती है, रविवार को भी, क्योंकि इन बच्चों को पढ़ाने के साथ गलत संगत से बचाना भी जरूरी है। वहा 70-80 बच्चे पढ़ते हैं। सप्ताह में एक दिन अतिरिक्त गतिविधियों का होता है। इसमें उन्हें पेंटिंग, योग, खेलकूद आदि का अभ्यास कराया जाता है, ताकि उनका सर्वागीण विकास हो सके।
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इंसान के रूप में चलते-फिरते ब्लड बैंक हैं मुकेश
शहर में किसी को भी रक्त की जरूरत हो, एक नाम हमेशा मदद के लिए सबसे आगे नजर आता है। ये नाम है, मुकेश हिसारिया का। मुकेश ने अपनी अथक कोशिशों से दुर्लभ रक्त समूह वाले ब्लड को भी सहज और सर्वसुलभ बना दिया है। वे लोगों को आसानी से ब्लड उपलब्ध कराने के लिए वाट्सएप गु्रप चलाते हैं। यहा स्वैच्छिक रक्तदान करने वाले 256 लोग मौजूद हैं। फेसबुक पेज है, जिसपर हजारों लोग जुड़े हुए हैं। रक्तदान शिविर का आयोजन करवाते हैं। बिहार ब्लड बैंक के नाम से वेबसाइट संचालित करते हैं, जिसपर स्वैच्छिक रक्तदान करने वाले लोग पंजीकृत हैं। हर रोज उनके साथ नए लोग जुड़ते जा रहे हैं। अगर इससे भी काम नहीं चलता है और किसी दुर्लभ ब्लड गु्रप वाले मरीज को बहुत दिक्कत होती है, तो वे शहर के एफएम चैनल से अनाउंस करवा देते हैं। हाल ही में उन्होंने एक और बड़ा प्रयास किया है। उन्होंने 48 लोगों का एक ऐसा गु्रप बनाया है कि जो देश के किसी भी महानगर में ब्लड उपलब्ध करवा सकते हैं।
मुकेश की कोशिशों से अमिताभ बच्चन भी प्रभावित हुए। उन्हें केबीसी में भी बुलाया गया था। वहा अमिताभ ने भरोसा दिया कि अगर कभी मुकेश ब्लड बैंक खोलेंगे तो बच्चन खुद उद्घाटन करने पहुंचेंगे। साथ में शर्त रखी कि गरीबों से एक भी पैसा प्रोसेसिंग या किसी नाम पर चार्ज नहीं किया जाएगा। मुकेश के फेसबुक पेज से अभी करीब छह लाख 14 हजार लोग जुड़े हुए हैं।
मुकेश ने कहा कि इसकी शुरुआत 1991 में हुई थी, जब वे अपनी मा का इलाज कराने क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल, वेल्लौर गए हुए थे। वहा एक महीना रहने के दौरान देखा कि पूर्वोत्तर भारत के लोगों को ब्लड मिलने में काफी दिक्कत होती है। उन्होंने वहा के कुछ दुकानदारों और युवाओं को उनकी मदद करने का आग्रह किया। जब पटना लौटे तो अपने कॉलेज के दोस्तों और कुछ अन्य युवाओं के साथ हर किसी को ब्लड उपलब्ध कराने की मुहिम में जुट गए।
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लावारिस मरीजों के मसीहा हैं गुरमीत
पीएमसीएच लावारिस मरीजों की उपेक्षा के लिए हमेशा बदनाम रहा है। इलाज की बात तो जाने ही दीजिए, भोजन-पानी के लिए भी मरीज तरसते रहते हैं। अचानक एक दौर ऐसा आया, जब भोजन के मामले में लावारिस मरीजों को दिक्कत नहीं रही क्योंकि शाम होते ही एक मसीहा वहा पहुंचने लगा और उन्हें खाना खिलाने लगा। रात होते ही आज भी पीएमसीएच के लावारिस मरीजों की निगाहें उस मसीहा की राह देखती है। इनका नाम है गुरमीत सिंह।
गुरमीत प्रतिदिन सभी लावारिस मरीजों के लिए अपने घर से खाना बनवाकर ले जाते हैं और खिलाते हैं। जो मरीज खुद हाथ से खाने में अक्षम होते हैं, वे उन्हें खुद अपने हाथों से खाना खिलाते हैं। कई बार पीएमसीएच प्रशासन ने अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए उन्हें वहा आने पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन गुरदीप झुके नहीं। ऊंचे अधिकारी से वहा सेवा करने का अधिकार लेकर आए और सेवा करते रहे। गुरमीत कहते हैं कि एक बार उनकी रिश्ते की एक बहन का पंजाब में एक्सीडेंट हो गया था। तब वह एक लावारिस के रूप में अस्पताल में भर्ती थीं और दूसरे लोगों ने उनका ख्याल रखा था। यह बात उनके दिल को छू गई और वे तब से लावारिस मरीजों को अपना परिवार मानने लगे। गुरमीत ने कहा कि वे लावारिस मरीजों की सेवा, गुरु महाराज की सेवा मानते हैं। खाना तैयार करने में उनके घरवाले भी पूरे जोश से मदद करते हैं। मरीजों को खाना खिलाने प्राय: उनके बेटे हरदीप सिंह भी आते हैं। सेवा के इस जुनून को देखते हुए गुरमीत सिंह को कई सम्मान मिल चुके हैं।
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चीनी के खिलाफ विनोद ने छेड़ी जंग
राजधानी के विनोद सिंह ने चीनी के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। वे शहर के वीआइपी लोगों को जोड़कर चीनी छोड़ो मुहिम चला रहे हैं। कई शोधों के हवाले से वे बताते हैं कि चीनी कई बीमारियों का मुख्य कारण है। अगर लोग चीनी खाना छोड़ देंगे तो मरीजों की संख्या 90 फीसद तक कम हो जाएगी। चीनी कैंसर का प्रमुख कारण है।
विनोद ने कहा कि गुड़ और चीनी दो संस्कृतियों का भी प्रतीक है। गुड़ पूरी तरह से प्राकृतिक जीवनशैली का प्रतीक है तो चीनी केमिकल मिश्रित, कृत्रिम, औद्योगिक और मुनाफावाद का। अगर चीनी की खपत कम हुई तो कंपनियां किसानों को एडवांस में पैसे भुगतान कर गुड़ खरीदेगी।
इस अभियान को 25 मई को इसी साल शुरू किया गया है, लेकिन एक साल से अध्ययन का काम जारी था। अब इसे व्यापक बनाने के लिए लोगों को जोड़ा जा रहा है। शहर के चर्चित चेहरों को वे इस अभियान का ब्रांड अंबेस्डर बनाने जा रहे हैं। इसके लिए वे नामचीन आइएएस अधिकारी, डॉक्टर, शिक्षाविद आदि से मुलाकात कर उन्हें अभियान से जोड़ रहे हैं। स्कूलों के प्राचार्य और शिक्षकों को भी इस मुहिम से जोड़ा जा रहा है।
विनोद सिंह के अभियान की जद में पूरा बिहार है। उन्होंने कहा कि पटना के बाद सूबे के सभी जिलों में इसके लिए अभियान चलाया जाएगा। वे चाहते हैं कि इस साल के अंत तक पटना में बच्चों की विशाल संख्या चीनी से दूर रहने की शपथ ले। हर जिले में चीनी छोड़ने का संदेश देती हुई रैली निकले।
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धरा को हरा करने में जुटे संजय
हरियाली के लिए पौधे और जगह की नहीं, सिर्फ इच्छा की जरूरत होती है। अगर इच्छा हो तो बाकी सबकुछ अपनेआप हो जाता है। संजय पांडेय की जुनून यही बताता है। अब तक हजारों पौधे लगा चुके संजय राजधानी को हरा-भरा करने में लंबे समय से जुटे हुए हैं। यह उनके दिल पर अंकित चित्र है, जिसे वे सजीव करना चाहते हैं। संजय बताते हैं कि जब वे गांधी मैदान से होते हुए बीएन कॉलेज में पढ़ने जाते थे, तो वहां नर्सरी में फूलों और दूसरे पौधों को देखकर बहुत खुश होते थे। उन्होंने अपना जेबखर्च बचाकर पौधे खरीदने और लगाने की शुरुआत तभी कर दी थी। बाद में उन्होंने इंडियन आर्मी ज्वाइन कर लिया। नौकरी के दौरान भी उन्होंने पुणे में स्थानीय लोगों के सहयोग से भगत सिंह के नाम से दो पार्क बना दिए। सेवानिवृत्त होने के बाद वे राजधानी को हरा करने में जुट गए। वे जहां भी खाली जगह देखते हैं, वहां गड्ढा बनाकर पौधा लाते हैं और आते-जाते किसी से भी आग्रह कर उसे रोपने को कहते हैं। इससे दूसरे लोग भी प्रेरित होते हैं और पौधों के प्रति उनका लगाव भी बढ़ता है।
अभी वे गांधी मैदान से दानापुर तक सड़क के डिवाइडर पर पौधे लगाने के अभियान में जुटे हुए हैं। वे लोगों से दान में गमले मांगते हैं। उसमें पौधा लगाकर डिवाइडर पर रख देते हैं और स्थानीय दुकानदारों को उसकी देखरेख करने के लिए प्रेरित करते हैं। अब तक वे सैकड़ों पौधे लगा चुके हैं। कुछ जगह बाधाएं भी आई। शरारती लोगों ने गमले तोड़ दिए लेकिन संजय का अभियान इससे रुका नहीं। संजय ने इसके अलावा शहर में चार जगह नेकी की दीवार भी स्थापित की है। वे रक्तदान में भी लोगों की मदद करते हैं।