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बाहुबल से हारे अब बेगम के सहारे

कानून के राज ने काम करना शुरू किया तो पिछले लोकसभा चुनाव हो या इससे पहले 2010 का बिहार विधानसभा के चुनाव। दोनों में ही बाहुबलियों को जब चुनाव, मैदान में उतरने का मौका नहीं मिल पाया तो उन्होंने अपनी पत्नियों को प्रत्याशी बनवा कर मैदान में उतार दिया।

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 31 Jul 2015 08:17 AM (IST)Updated: Fri, 31 Jul 2015 10:56 AM (IST)
बाहुबल से हारे अब बेगम के सहारे

पटना [सुनील राज]। बिहार की राजनीति में बाहुबल की कहानी पुरानी है। शुरू से लेकर आज तक चुनाव दर चुनाव बिहार के कई इलाकों में सिर्फ बाहुबलियों की ही चली। वैसे इलाकों में तमाम कोशिशों के बाद भी सामान्य व्यक्ति या फिर किसी राजनीतिक दल का कम ताकतवर उम्मीदवार न तो चुनाव ही जीत सका और न ही इलाके में अपनी घुसपैठ बना सका।

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लेकिन, वक्त बदल रहा है और परम्परा टूटने लगी है। आज जैसे-जैसे कानून के राज ने काम करना शुरू किया है दागी और बाहुबलियों पर कानून का शिकंजा सख्त होने लगा। पिछले कुछ सालों में आलम यह रहा कि दागी और बाहुबलियों की तमाम कोशिशों और चाहतों के बाद भी उन्हें भाग्य आजमाने का मौका नहीं मिल पाया।

हालांकि, इस कहानी का एक पहलू यह भी है कि आज भी विधानसभा-लोकसभा के कई नेताओं के दामन पर कोई न कोई दाग जरूर है। हां, यह बात अलग है कि कुछ के दाग दिखाई पड़ते हैं तो कुछ के नहीं।

पर अब समय बदला और कानून सख्त हुआ तो बाहुबलियों ने इसका भी रास्ता तलाश लिया है। पिछला लोकसभा चुनाव हो या इससे पहले 2010 का बिहार विधानसभा चुनाव। दोनों में ही बाहुबलियों को जब चुनाव, मैदान में उतरने का मौका नहीं मिल पाया तो उन्होंने अपनी पत्नियों को प्रत्याशी बनवा कर मैदान में उतार दिया।

महज एक साल पहले संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 संसदीय सीटों में से खगडिय़ा, वैशाली और मुंगेर जैसी सीटों पर बाहुबली नेताओं की बेगमों ने चुनाव लड़ा था। वैशाली क्षेत्र को राजपूतों का गढ़ कहा जाता है। यहां से लोकसभा चुनाव में राजद की ओर से डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह, लोजपा-भाजपा गठबंधन के रामा सिंह और जदयू के प्रत्याशी विजय साहनी मैदान में थे।

पहले कयास इस बात के थे कि जदयू के टिकट पर लालगंज के बाहुबली और ब्रज बिहारी हत्याकांड के सजायाफ्ता मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नु शुक्ला उम्मीदवार होंगी, लेकिन जब जेडीयू ने उन्हें मौका नहीं दिया तो उन्होंने बगावत करते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ा। हालांकि, वे चुनाव में परास्त हो गई और यहां से रामा सिंह ने बाजी मारी।

पूर्वी मुंगेर का संसदीय क्षेत्र पिछड़ेपन के साथ ही नक्सल गतिविधियों की मार झेलता रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में जदयू सांसद राजीव रंजन, लोजपा भाजपा गठबंधन की ओर से वीणा देवी और राजद की ओर से प्रगति मेहता उम्मीदवार थे।

वीणा देवी पूर्व सांसद सूरजभान सिंह की पत्नी हैं। सूरजभान सिंह हत्या के एक मामले में आरोपी बनाए गए तो उन्होंने लोजपा की ओर से अपनी सीट पर पत्नी को चुनाव मैदान में उतार दिया। महत्वपूर्ण यह है कि वीणा देवी ने चुनाव में जीत भी दर्ज कराई।

सिवान की चर्चा करें तो कभी इलाके में पूर्व सांसद शहाबुद्दीन का दबदबा हुआ करता था, लेकिन, समय ने ऐसी करवट बदली कि पिछले कई सालों से से सलाखों के पीछे हैं। जेल से बाहर आने का कोई रास्ता न देख उन्होंने अपनी पत्नी हिना शहाब को यहां से उम्मीदवार बनवाया था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। वे निर्दलीय ओमप्रकाश यादव से चुनाव हार गई थीं।

अपराधग्रस्त खगडिय़ा में कहानी थोड़ी अलग हैं। रणवीर यादव की दो पत्नियों में से एक कृष्णा यादव ने पिछला लोकसभा चुनाव यहां से लड़ा था। उनकी बहन और रणवीर यादव की दूसरी पत्नी पूनम देवी तथा खुद रणवीर यादव ने कृष्णा यादव के पक्ष में जोरदार प्रचार किया बावजूद वे चुनाव जीत नहीं सकी।

बहरहाल, चुनावों में इस प्रकार के प्रयोग अब आम बात होती जा रही है। अब जबकि एक बार फिर विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है तो कयास लगाए जा रहे हैं कि चुनाव मैदान में एक बार फिर इस प्रकार के प्रयोग हों तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।


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