बहुत सच बोलती है कविता की दुनिया
ये सुबह कविताओं की थी। दोपहर भी और शाम भी। राजधानी के चिल्ल-पौं से दूर तारामंडल सभागार के अंदर एक अलग ही दुनिया सजी थी।
पटना। ये सुबह कविताओं की थी। दोपहर भी और शाम भी। राजधानी के चिल्ल-पौं से दूर तारामंडल सभागार के अंदर एक अलग ही दुनिया सजी थी। कविताओं की दुनिया। सुबह का सूरज शाम आते-आते भले ही मद्धिम हो गया हो मगर कविताओं का तेज बरकरार था। भारतीय कविता समारोह के आखिरी सत्र में भी उसी ऊर्जा से तालियां बज रही थीं जैसे पहले या दूसरे सत्र में। ये जादू देश भर से आए कवियों और उनकी कविताओं का था। भाषा का बंधन जैसे कहीं खो सा गया था। हिंदी, उर्दू, मगही, गुजराती, मराठी, कन्नड़। सभी में एक से बढ़कर एक कविताएं। कविताओं का ये सफर आज भी जारी रहेगा। सुबह से शाम तक।ये सुबह कविताओं की थी। दोपहर भी और शाम भी। राजधानी के चिल्ल-पौं से दूर तारामंडल सभागार के अंदर एक अलग ही दुनिया सजी थी। कविताओं की दुनिया। सुबह का सूरज शाम आते-आते भले ही मद्धिम हो गया हो मगर कविताओं का तेज बरकरार था। भारतीय कविता समारोह के आखिरी सत्र में भी उसी ऊर्जा से तालियां बज रही थीं जैसे पहले या दूसरे सत्र में। ये जादू देश भर से आए कवियों और उनकी कविताओं का था। भाषा का बंधन जैसे कहीं खो सा गया था। हिंदी, उर्दू, मगही, गुजराती, मराठी, कन्नड़। सभी में एक से बढ़कर एक कविताएं। कविताओं का ये सफर आज भी जारी रहेगा। सुबह से शाम तक।
पहला सत्र
दिन धीरे-धीरे चढ़ रहा था। दस बज गए थे। राजधानी के तारामंडल सभागार में आयोजित भारतीय कविता समारोह में उद्घाटन के बाद शनिवार को दूसरा दिन था। कविता की मुनादी हो रही थी और अनुशासन का पर्व चल रहा था। हालांकि पहले बाणभट्ट सत्र में जिन कवियों का नाम आमंत्रण पत्र पर छापा गया था उनमें से दो बड़े कवि नदारद थे। अशोक वाजपेयी सुबह ही फ्लाइट पकड़ कर निकल गए तो निलेश रघुवंशी नजर नहीं आ रहे थे। पहले सत्र की शुरुआत करने आईं वरिष्ठ लेखिका पुष्पा भारती ने पति धर्मवीर भारती की इमरजेंसी के दौरान जेपी पर लिखी कविता ‘मुनादी’ से लोगों को जोड़ने की कोशिश की।
खलक ख़्ाुदा का मुल्क बाश्शा का हुकूम शहर कोतवाल का.. हर खासो-आम को आगह किया जाता है कि खबरदार रहें और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें गिरा लें खिड़कियों के परदे1और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!1धर्मवीर भारती की यह पंक्तियां सभागार में मौजूद हर शख्स के चेहरे पर आंदोलन की तस्वीर की रेखाएं खींच रही थी। कविता लंबी थी लेकिन समय उतना नहीं। इसलिए इसके बाद उसी आंदोलन से जुड़ी अगली कड़ी ‘अनुशासन का पर्व‘ पुष्पा भारती ने सुनाई। ये कविता इमरजेंसी को विनोबा भावे द्वारा अनुशासन कहे जाने पर व्यंग्य था। यह कैसा अनुशासन पर्व है। मार्केटी सीढ़ियों पर बहुत से लोग बिकाऊ खड़े हैं यह तुम्हारे बुजदिली का पर्व है। पुष्पा भारती ने धर्मवीर भारती की कालजयी रचना अंधयुग से अपनी बात खत्म की। बात खत्म होने तक हथेलियां अपनी चोटों से तालियों के स्वर निकालती रहीं।
कड़वे यथार्थ के बाद रुमानियत के पल भी
सभागार में कवियों ने समाजिक यथार्थ के साथ कुछ रुमानियत के पल भी संजोए। पुष्पा भारती ने धर्मवीर भारती की कविता ‘आजकल चांदनी तमाम रात जगाती है’ सुनाई। मौजूद भावना शेखर ने स्त्री के प्रेम की अभिव्यक्ति की।
मुनिया की सुन सब हुए उदास
कवयित्री भावना शेखर ने अपनी रचना कागज पे मुनिया का पाठ किया। कविता में सातवीं में पढ़ने वाली बच्ची की आत्महत्या के बाद उसकी मां के दर्द की व्याख्या थी।
दूसरा सत्र
सुबह का सूरज दोपहर आते-आते जैसे उष्मा से भरा था, कुछ वैसी ही ऊर्जा भारतीय कविता समारोह के दूसरे सत्र में महसूस की जा सकती थी। वैसे भी जहां विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और वसीम बरेलवी जैसे नाम हो वहां तो जादू चलना ही है। इसके अलावा उड़िया के रमाकांत रथ, मगही के उदय शंकर शर्मा, गुजरात के सितांशु यशश्यन्द्र व कन्नड़ की प्रतिभा नंदकुमार ने भी कविताएं पढ़ी। तुम अशरीरी हो, फिर भी मेरे पास रहते हो1आचार्य शिवपूजन सहाय को समर्पित दूसरे सत्र की शुरुआत उड़िया कवि रमाकांत रथ ने की। उन्होंने कृष्ण की मौत के बाद राधा के दुख पर कविता पढ़ी। ‘मैं विधवा नहीं हूं। मैं रात के पीछे-पीछे जाने वाली में से नहीं हूं। मेरे मांग में सिंदूर अब अधिक लाल हो गया है।’ दूसरी कविता पढ़ी। ‘किसी ने छुआ नहीं, न ही की कोई बात। तुम अशरीरी हो, फिर भी मेरे पास रहते हो।’ थोड़ी सी जगह ने खूब बटोरी ताल हिंदी के वरीय कवि डॉ. विश्वनाथ तिवारी की कविताओं ने शुरुआत से ही लोगों को बांधे रखा। शुरुआत ‘जगह’ शीर्षक कविता से हुई। इसके बाद ‘सूटकेस’ और ‘मनुष्यता का दुख’ शीर्षक कविता का भी पाठ किया।
कविता इस प्रकार है:-‘खड़े-खड़े मेरे पांव दुखने लगे थे/ थोड़ी सी जगह चाहता था बैठने के लिए। सभी बेदखल थे अपनी जगह से/ रेल में मुसाफिरों/आकाश में पक्षियों/सागर में जलचरों/पृथ्वी में वनस्पतियों के लिए नहीं थी जगह। नहीं थी कोई भी चीज अपनी जगह पर/ जूते में हीरे जड़े थे/गले में माला नोटों की/ न जंगल में आदिवासी/ न आदमी में इंसान/ राजनीति में नीति/नीति में प्रेम/ और प्रेम में स्वाधीनता के लिए नहीं थी जगह।’बीमार वसीम बरेलवी ने जीता दिलउर्दू के मशहूर शायर वसीम बरेलवी की तबीयत नासाज़ थी। बावजूद इसके उन्होंने शेर और गज़ल पढ़ी। खूब वाहवाही भी मिली। तालियां बजीं तो फिर बजती चली गईं। कुछ शेर इस प्रकार हैं:-‘छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहां जो जाओगे, पतली गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे।’‘कौन सी बात कहां, कैसी कही जाती है/ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है। एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने, कैसे मां-बाप के होंठो से हंसी जाती है।’सबने मिलाए हाथ यहां तिरगी के साथ, कितना बड़ा मजाक हुआ रोशनी के साथ/शर्ते लगाई जाती नहीं, दोस्ती के साथ, कीजिए मुङो कुबूल मेरी हर कमी के साथ। किस काम की रही, ये दिखावे की जिंदगी, वादे किसी के साथ, गुजारी किसी के साथ।वसूलों पर जहां आंच आए, टकराना जरूरी हैजो जिंदा हो तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी हैसलीका ही नहीं उसे शायद महसूस करने का1जो कहता है कि खुदा है, तो नजर आना जरूरी है।बहुत बेबाक आंखों का ताल्लुक टिक नहीं पाता,मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना जरूरी है।