बिहार में दर्जा प्राप्त मंत्रियों की मौज
राज्य के कई आयोग-अकादमी या शोध संस्थान मेंअध्यक्ष, उपाध्यक्ष, निदेशक और सदस्यों की मौज है।
पटना ( सुभाष पांडेय)। राज्य के कई आयोग-अकादमी या शोध संस्थान मेंअध्यक्ष, उपाध्यक्ष, निदेशक और सदस्यों की मौज है। ये बिना किसी जवाबदेही के हर महीने लाख टके से अधिक वेतन और लालबत्ती गाड़ियों के साथ मंत्रियों की सुख सुविधाओं का आनंद उठा रहे हैं। ये आयोग-अकादमी पिछले कुछ वर्षो से सत्ता भोग का केंद्र गए हैं। सरकार इन संस्थाओं पर 50 करोड़ से अधिक खर्च कर रही है, लेकिन जिस मकसद से इसका गठन हुआ वह पूरा नहीं हो रहा है। कई आयोगों ने तो गठन के बाद से कोई रिपोर्ट भी नहीं दी है।
पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी का कहना है कि अधिकांश आयोगों का कोई मतलब नहीं गया है। यह सत्ता सुख का केंद्र बन गए हैं। पिछड़े, महादलित और अल्पसंख्यकों के हिमायती कहे जाने वाले नेताओं को भी इसकी चिंता नहीं है कि कमजोर तबके की स्थिति में सुधार कैसे हो, इसके लिए गठित आयोग काम कर भी रहे हैं या नहीं। ट्रेजरी से यह एक तरह की लूट है। इसकी जांच होनी चाहिए। 1 दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों में मंत्रियों की सीमा तय कर दी है। बिहार में 38 से ज्यादा मंत्री बनाए नहीं जा सकते। ऐसे में आयोग, अकादमी और संस्थाएं ही वह जरिया हैं जहां चहेतों को मंत्री की सुख सुविधा देकर खुश किया जा सकता है। सरकार ने ऐसे ही आयोग और संस्थाओं में सौ से अधिक लोगों को कैबिनेट मंत्री, राज्यमंत्री और उपमंत्री की सुविधाएं और सरकारी बंगले आवंटित कर खुश किया है। जदयू के टिकट पर मधुबनी से गुलाम गौस लोकसभा चुनाव लड़े। हार गए तो उन्हें कार्यक्रम कार्यान्वयन समिति का उपाध्यक्ष बनाकर मंत्री की सुविधाएं दे दी गईं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं।
राज्य में एक दर्जन से अधिक आयोग, अकादमियां व संस्थाएं हैं, जहां सरकार ने अपने लोगों को मनोनीत किया है। बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग, अति पिछड़े वर्गो के लिए राज्य आयोग, राज्य नागरिक परिषद, बिहार राज्य महिला आयोग, राज्य महादलित आयोग, उपभोक्ता संरक्षण राज्य आयोग, बिहार राज्य बाल श्रमिक आयोग, बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग, राज्य किसान आयोग, राज्य अनुसूचित जाति आयोग, राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग, राज्य मछु़आरा आयोग, भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, राज्य पुस्तकालय समिति, बिहार राज्य पुस्तकालय व सूचना प्राधिकार, बिहार राज्य सुन्नी वक्फ बोर्ड, राज्य शिया वक्फ बोर्ड, राज्य उर्दू अकादमी और बिहार राज्य योजना पर्षद ऐसी ही कुछ संस्थाएं हैं जिसके अध्यक्ष और सदस्य को सरकार ने मंत्रियों की सुविधाएं दी हैं, लेकिन उनकी कोई जवाबदेही तय नहीं है। रिपोर्ट दें तो ठीक, न दें तो भी ठीक।
बिहार राज्य नागरिक परिषद भी ऐसी ही संस्था है। पंद्रह साल के लालू- राबड़ी राज में राधानंदन झा को कांग्रेसी होते हुए भी जीवनर्पयत उपाध्यक्ष बनाए रखा गया। नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते ही कभी उनके आलोचक रहे भोला प्रसाद सिंह को उपाध्यक्ष बना दिया गया। तब से वे भी इस पद पर हैं। परिषद में नौ सदस्य हैं। इसमें एक को कैबिनेट, तीन को राज्यमंत्री और अन्य को उपमंत्री का दर्जा मिला है। पिछले 25 साल में नागरिक परिषद ने सरकार को कोई रिपोर्ट दी हो, यह किसी को याद नहीं। अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष नौशाद अहमद भी नौ साल से जमे हैं। महादलित आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग और अति पिछड़े वर्गो के लिए आयोग की कई वर्षो से कोई रिपोर्ट नहीं आई है। सवर्णो के लिए आयोग बना। अध्यक्ष और सदस्य वेतन व सुविधाएं ले रहे हैं, लेकिन आयोग का अब तक बॉयलाज भी नहीं बना है। यही स्थिति बिहार राज्य बाल संरक्षण आयोग की भी है।