बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर social media के टॉप ट्रेंड में शामिल
जननायक कहे जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की आज जयंती है। आज सोशल मीडिया पर कर्पूरी ठाकुर हैशटैग के साथ टॉप ट्रेंड मे शामिल हैं।
पटना [जेएनएन]। सोशल मीडिया साइट्स पर और गूगल ट्रेंड में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ट्रेंड करते रहे हैं। इस ट्रेंड में कई युवा सवाल पूछ रहे हैं कि भला ये कर्पूरी ठाकुर कौन हैं, ये क्यों अचानक से चर्चा में आ गए हैं? दरअसल, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की आज 92वीं जयंती है और इसे मनाने के लिए बिहार में सक्रिय सभी बड़े राजनीतिक दलों में होड़ लगी हुई है।
आखिर क्यों कर्पूरी ठाकुर को आज इतना किया जा रहा याद
1. लालू-नीतीश ने कर्पूरी को भुलाया: राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार की राजनीति से कर्पूरी ठाकुर का नाम गायब हो गया था। क्योंकि लालू ने बिहार में सत्ता पाने का नया फॉर्मूला मुस्लिम-यादव समीकरण का चलन शुरू कर दिया था।
बाद में ओबीसी की कुछ जातियों और ऊंची जाति के लोगों का समर्थन पाकर नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सत्ता हासिल की। इस वजह से 1990 के बाद से अचानक कर्पूरी ठाकुर राजनीति की लाइमलाइट से गायब हो गए। यहां दिलचस्प बात यह है कि लालू और नीतीश दोनों हमेशा कहते हैं कि वे कर्पूरी ठाकुर के बताए मार्ग पर चलते हैं।
2. पीएम मोदी ने कर्पूरी ठाकुर को दोबारा 'जिंदा' किया: नीतीश और लालू के हाथ मिलाने के बाद बीजेपी की नजर बिहार की अतिपिछड़ी जाति पर पड़ी। इसी को ध्यान में रखकर 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान तत्कालीन पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने बिहार की रैली में खुद को अतिपिछड़ा वर्ग (ईबीसी) से बताया।
बाद में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी नरेंद्र मोदी की तुलना कर्पूरी ठाकुर से कर दी। इसके बाद नीतीश और लालू भी कर्पूरी को अपना बताने की होड़ में कूद पड़ें। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बिहार में सबसे ज्यादा जनसंख्या अतिपिछड़ा वर्ग की है। कर्पूरी ठाकुर नाई जाति से थे, जो अतिपिछड़ा वर्ग में आता है।इसी वजह से मौत के 28 साल कर्पूरी ठाकुर चर्चा में आ गए हैं।
3. कभी चुनाव नहीं हारे कर्पूरी ठाकुर: मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुंचना लगभग असंभव ही था।
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे।
4. ईमानदारी की मिसाल: आज के दौर में राजनेताओं का नाम घोटालों में आए दिन लिया जाता है, ऐसे में कर्पूरी ठाकुर आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल हैं। राजनीति में इतना लंबा सफर बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।
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5. सीएम बनने के बाद बहनोई को थमा दिया उस्तरा: कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि जब वे राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए। उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, 'जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।'
बिहार में बिछ रही यूपी चुनाव की बिसात, कौन देगा शह - कौन देगा मात6. ये 'कर्पूरी डिविजन' क्या है?: 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में आरक्षण लागू करने के चलते कर्पूरी ठाकुर हमेशा के लिए सवर्णों के दुश्मन बन गए। वे देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया।
साथ ही उन्होंने दसवीं की बोर्ड परीक्षा में अंग्रेजी की परीक्षा में पास होने की अनिवार्यता खत्म कर दी। यानी अगर छात्र अंग्रेजी में फेल भी है तो उसे पास माना जाएगा, इसे आम बोल-चाल में 'कर्पूरी डिविजन' कहा जाता है। उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था।