Move to Jagran APP

सिस्टम की मार: गोल्ड मेडलिस्ट पिता को 'चाय' बेचता देख, दुखी बेटों ने भी छोड़ दी तैराकी

प्रतिभा को जब सम्मान ना मिले भूखे मरने की नौबत आ जाए तो एेसा गोल्ड मेडल किस काम का? गोल्ड मेडल दिलाने वाले पिता को चाय बेचता देखकर बेटों ने भी तैराकी छोड़ दी। पढ़िए दुखभरी दास्तां

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 22 Nov 2019 09:45 AM (IST)Updated: Sat, 23 Nov 2019 08:27 AM (IST)
सिस्टम की मार: गोल्ड मेडलिस्ट पिता को 'चाय' बेचता देख, दुखी बेटों ने भी छोड़ दी तैराकी
सिस्टम की मार: गोल्ड मेडलिस्ट पिता को 'चाय' बेचता देख, दुखी बेटों ने भी छोड़ दी तैराकी

पटना [प्रशांत कुमार]। 'मैंने बिहार को राष्ट्रीय स्तर की तैराकी प्रतियोगिताओं में आठ पदक जीतकर दिए। सरकार किसी की भी रही मगर मेरी प्रतिभा को सम्मान नहीं मिला। भूखे मरने की नौबत आ गई थी। दो दशक से चाय दुकान चलाकर पेट पाल रहा हूं। मेरे बेटे सोनू कुमार यादव और सन्नी कुमार यादव, दोनों ही बेहतरीन तैराक हैं, लेकिन वे मेरी तरह 'चायवाला' बनकर नहीं रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने तैराकी छोड़ दी।'

loksabha election banner

राजधानी के नया टोला नुक्कड़ पर 1998 से चाय दुकान चला रहे नेशनल तैराक गोपाल प्रसाद यादव के पास जब जागरण की टीम पहुंची तो उनका दर्द कुछ यूं छलक पड़ा।

गोपाल कहते हैं, 1987 से 89 तक लगातार तीन साल बिहार को दो स्वर्ण पदक समेत आठ बार सम्मान दिलाया। 1990 में प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाया, क्योंकि खाने के लिए मात्र दस रुपये मिलते थे। इस बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आयोजनों में शरीक हुआ। चौथे, पांचवें स्थान पर रहा। इसका कारण यह है कि हम गंगा में तैराकी करते थे और वहां स्विमिंग पूल मिलता था। 

फाइल उठाकर फेंक देते थे अफसर

मुझे याद है 1974-75 की बात। इंदिरा गांधी के शासनकाल में तैराकी के लिए 1500 रुपये दिए जाते थे। 1990 में घर की आर्थिक स्थिति चरमरा गई, तब सरकारी नौकरी के लिए प्रयास शुरू किया। पोस्टल विभाग की नौकरी के लिए संत माइकल स्कूल में इंटरव्यू देने गया मगर वहां के अधिकारी ने फाइल ही उठाकर फेंक दी। 1998 में नया टोला के मुहाने पर चाय का स्टॉल लगाया। दो-चार पैसे आने लगे। दो वक्त का खाना मिलने लगा।

मुख्यमंत्री भी आए मगर नहीं मिली नौकरी

गोपाल कहते हैं, दर्जनों पत्र- पत्रिकाओं में मेरी व्यथा पर लेख छपे। जब मैंने चाय दुकान खोली, तब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। वे लाल बत्ती वाली गाड़ी से मेरी दुकान पर आए और मुझे उसी गाड़ी पर बैठकर सचिवालय ले गए। मुझसे पूछा गया कि कहां तक पढ़े हो। बताया, नौवीं पास हूं। जवाब मिला, आपको नौकरी का पत्र भेजा जाएगा। कुछ महीने बाद तत्कालीन खेल मंत्री भी आए। फिर आश्वासन मिला पर आज तक नौकरी नहीं मिली।

रविवार को देते तैराकी का मुफ्त प्रशिक्षण

मेरी हालत के लिए तैराकी नहीं, बल्कि सरकारें दोषी हैं। दोनों बेटों को तैराकी सिखाया। सन्नी (छोटा बेटा) में नेशनल स्तर पर खेलने की क्षमता है, लेकिन मेरा हाल देखकर दोनों ने तैराकी छोड़ दी। बड़ा बेटा सोनू कुरियर कंपनी में काम करता है। सन्नी प्रिंटिंग के काम से जुड़ा है। एक बेटी है, जिसकी शादी करनी बाकी है। मैंने तैराकी नहीं छोड़ी। आज भी हर रविवार को मुफ्त में तैराकी का प्रशिक्षण देता हूं।

अब हाथ की बनी चाय ही पहचान

गोपाल की चाय दुकान पर आने वाले ग्राहक पहले उनके आठों पदकों को निहारते हैं, जिन्हें उन्होंने स्टॉल के ऊपर टांग रखा है। पीछे नेशनल तैराक का बड़ा बैनर लगा है। इस महंगाई में भी वह पांच रुपये प्रति गिलास चाय पिलाते हैं। गोपाल कहते हैं, मैं नाम कमाने का शौकीन हूं। तैराकी ने नाम दिलाया, अब मेरे हाथ की बनी चाय पहचान बन गई है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.