प्रसंगवश: सुधीर-परमेश्वर करें तो भ्रष्टाचार, माननीय करें तो अधिकार
बीएसएससी पेपर लीक की जांच में कइयों की कलई खुलती जा रही है। आयोग के अध्यक्ष व सचिव जिन आरोपों को ले जेल में हैं, लगभग उन्हीें आरोपों से घिरे 'माननीय' इसे अपना अधिकार बता रहे हैं।
पटना [सद्गुरु शरण]।बिहार कर्मचारी चयन आयोग (बीएसएससी) द्वारा आयोजित एएनएम व अन्य पदों की भर्ती परीक्षा में जिन अनियमितताओं के लिए आयोग के अध्यक्ष सुधीर कुमार (आइएएस) और सचिव परमेश्वर राम सहित करीब तीन दर्जन व्यक्ति जेल भेजे जा चुके हैं, उसी प्रकरण में अभ्यर्थियों को लाभ दिलाने की सिफारिश करने के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह, राज्य सरकार के कुछ मंत्रियों तथा अधिसंख्य दलों के विधायकों के नाम उजागर होने के बाद स्वाभाविक रूप से हड़कंप मचा हुआ है।
विडंबना है कि इस प्रकरण में अपराध की जिस मूल प्रवृत्ति (चयन प्रक्रिया को प्रभावित करना) के लिए बड़े अधिकारी व अन्य लोग जेल भेजे गए हैं, उसी प्रवृत्ति को जन प्रतिनिधियों का अधिकार बताकर जायज ठहराया जा रहा है।
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यानी सुधीर-परमेश्वर एंड कंपनी ने कथित रूप से जो अपराध किया, वह जन प्रतिनिधियों का अधिकार है। आखिर संविधान की कौन सी धारा जन प्रतिनिधियों को यह अधिकार देती है कि वे प्रतियोगी परीक्षा के जरिए हो रहे चयन में अपने प्रिय अभ्यर्थियों की सिफारिश करें? राज्य शासन के किस अधिकारी में हिम्मत है कि वह केंद्रीय मंत्री रह चुके सत्तारूढ़ गठबंधन के वरिष्ठ नेता, मंत्रियों और विधायकों की सिफारिश को नजरअंदाज कर दें, खासकर जब जन प्रतिनिधि कह रहे हों कि अभ्यर्थी उनके परिवार के हैं? इस विवाद का वैधानिक पक्ष अपनी जगह है जिस पर जांच एजेंसी ध्यान देगी। यहां चर्चा इसके नैतिक पक्ष की।
नीतीश कुमार के मौजूदा मुख्यमंत्रित्वकाल में कई विधायकों के दुष्कर्म आदि की वारदातों में लिप्त होने की घटनाओं के अलावा दो सनसनीखेज प्रकरण सामने आए। पिछले साल बिहार बोर्ड की परीक्षा में रिजल्ट या मेरिट घोटाला तथा हाल ही में बिहार कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षाओं में पेपर लीक व एएनएम भर्ती घोटाला। दोनों मामलों में आयोजक संस्थाओं के शीर्षस्थ अधिकारियों की संलिप्तता पाई गई, जिसके बाद उन्हें जेल भेजकर विधिसम्मत कठोर कार्रवाई की जा रही है।
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मुख्यमंत्री ने दृढ़ता दिखाते हुए जांच एजेंसियों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने की छूट दी, जिसके परिणामस्वरूप दोनों घोटालों की जांच तार्किक परिणति तक पहुंची। बहरहाल, अब एएनएम भर्ती घोटाले में कई जन प्रतिनिधियों के नाम सार्वजनिक होने के बाद परिस्थिति ने अलग ढंग से करवट ली है।
जिन माननीयों ने एएनएम अभ्यर्थियों के लिए सिफारिशें कीं, उनका तर्क है कि जनप्रतिनिधि होने के नाते सिफारिश करना उनकी मजबूरी है। यह अधिकारियों पर निर्भर करता है कि वे विधि व्यवस्था के दायरे में फैसले लें। सवाल यह है कि जन प्रतिनिधि जो नसीहत अधिकारियों को दे रहे, वही खुद पर लागू क्यों नहीं करते?
बेशक जन प्रतिनिधियों के पास उनके क्षेत्र के लोग सिफारिश करवाने आते हैं। ऐसे मामलों में जन प्रतिनिधि खुद उचित-अनुचित का फैसला नहीं कर सकते? क्या जन प्रतिनिधियों को नहीं मालूम कि प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रक्रिया क्या होती है? इस प्रकरण ने ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं जिन पर सभी जन प्रतिनिधियों को ईमानदारीपूर्वक आत्म-चिंतन करना चाहिए कि ऐसी परीक्षाओं में सिफारिश करना क्या उनका सांविधानिक या नैतिक अधिकार है?
किसी भी प्रतिस्पर्धा में यदि एक अयोग्य अभ्यर्थी आगे बढ़ता है तो वह एक योग्य अभ्यर्थी को पीछे कर देता है। यह उस अभ्यर्थी के व्यक्तिगत नुकसान के साथ-साथ 'राष्ट्रीय क्षति' भी है। माननीयों को सोचना चाहिए कि उन मेधावी अभ्यर्थियों का क्या दोष है जिनके पास भ्रष्ट अधिकारियों की जेब भरने के लिए धन नहीं, और आप तक पहुंचने का माध्यम नहीं। यदि कोई अभ्यर्थी अपनी मेधा और मेहनत के बूते तरक्की करना चाहता है तो इस व्यवस्था में उसका सपना कैसे पूरा होगा जहां जन प्रतिनिधि अनुचित सिफारिशों को अपना अधिकार बताते हैं?
बिहार संक्रमणकाल से गुजर रहा है। एक तरफ उसका अतीत है तो दूसरी ओर भविष्य। बिहार बदलने के जुमले चुनाव में खूब गूंजे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके लिए जूझते दिखते हैं लेकिन क्या यह अकेले मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी है? क्या अकेले नीतीश कुमार बिहार को बदल सकते हैं?
जब तक मेरिट घोटाले और पेपर लीक घोटाले होते रहेंगे, बिहार में कुछ नहीं बदल सकता। बिहार बदलने के लिए सबको अपनी सोच बदलनी होगी। जन प्रतिनिधियों को स्वीकार करना होगा कि भ्रष्टाचार उनका अधिकार नहीं है।