जयंती विशेष: तब बिस्मिल्लाह खां ने कहा था, अमेरिका में गंगा कहां से लाओगे?
एक कार्यक्रम के बाद जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को अमेरिका में ही रहने की बात कही गई तो उन्होंने तपाक से कहा था कि अमेरिका में गंगा कहां से लाओगे?
पटना [प्रमोद कुमार सिंह]। प्रतिभा कहीं भी अंखुआ सकती है। लगन और जुनून का खाद-पानी उसे न सिर्फ ताकत देता है, वरन बड़ी व्याप्ति प्रदान करता है। शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ऐसे ही एक शख्स थे, जो डुमरांव जैसी जगह से वाराणसी होते पूरे विश्व पटल पर छा गए।
अमेरिका में एक कार्यक्रम के बाद जब उनसे अमेरिका में ही रहने की बात कही गई तो उन्होंने तपाक से कहा था कि अमेरिका में गंगा कहां से लाओगे? ऐसे थे खान साहब। अपनी मिट्टी, गंगा और शहनाई को जीने वाले उस्ताद की जयंती पर आज उन्हें याद करना सुर लहरियों में गोते लगाने जैसा है। गंगा-जमुनी संस्कृति के सच्चे वाहक थे बिस्मिल्लाह खां।
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भोजपुरी और मिर्जापुरी कजरी पर धुन छेडऩे वाले उस्ताद ने शहनाई जैसे लोक वाद्य को शास्त्रीय वाद्य की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। वर्ष 1962 में फिल्म 'गूंज उठी शहनाई' में दिल का खिलौना हाय टूट गया, कोई लुटेरा आके लूट गया...में संगीत देकर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपने शहनाई वादन से सबके दिलों पर छा गए। वैसे तो उस्ताद ने कई फिल्मों में संगीत दिया, लेकिन अपने जीवन में तीन फिल्मों हिन्दी की 'गूंज उठी शहनाई', भोजपुरी में 'बाजे शहनाई हमार अंगना' और मद्रासी फिल्म 'सनाधि अपन्ना' में बतौर म्यूजिक डायरेक्टर काफी चर्चित रहे।
जब गूंजी थी किलकारी
21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में एक गरीब परिवार पैगम्बर बख्श के यहां बालक कमरुद्दीन का जन्म हुआ। पैगंबर बख्श डुमरांव राज के मोलाजिम थे। कमरुद्दीन ने महज चौथी की पढ़ाई कर डुमरांव जैसे कसबाई शहर से निकलकर दुनिया के मानचित्र पर अपने संगीत का लोहा मनवाया और बाद में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहलाए।
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शौक बना सहारा
वे सुबह में डुमरांव के बांके बिहारी मंदिर में जाते, जहां उनके अब्बा जान शहनाईवादन किया करते थे। वे शहनाई के इतने शौकीन थे कि इनके लिए अब्बा ने छोटी सी पिपही बनवा दी थी, जिसे लेकर वे दिनभर फूंकते रहते थे। पैगंबर बख्श के बड़े बेटे का नाम शम्सुद्दीन था। छोटे बेटे कमरुद्दीन यानी बिस्मिल्लाह खां थे।
अचानक एक दिन उनके सिर से मां का साया उठ गया। दस साल की अवस्था में कमरुद्दीन को उनके मामू अली बख्श अपने साथ वाराणसी लेकर चले गए। यहां उनकी शहनाई रियाजी बनी। मामू के मरने के बाद इन दोनों भाइयों को जीविकोपार्जन के लिए बिस्मिल्लाह एंड पार्टी बनानी पड़ी, उसी से कमाई कर अपना पेट भरते थे।
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अगस्त, 2006 को ली अंतिम सांस
जिंदगी में कई उतार चढ़ाव देखने वाले उस्ताद 21 अगस्त, 2006 को वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में हमेशा-हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गए। उन्हें बनारस में अपने जमाने की मशहूर नर्तकी उमरांव जान की मजार से थोड़ी दूर पर वाराणसी के कब्रिस्तान फातमान में दफना दिया गया।
आजादी के बाद पहली बार दिल्ली के दीवान-ए-खास से शहनाई वादन करने वाले उस्ताद ने आजादी की 50 वीं वर्षगांठ पर भी शहनाई बजाई थी। बनारस की रुहानी फिजा में मंदिर प्रांगण में घंटों साधना करने वाले उस्ताद एकता और भाईचारे की मिसाल थे। शहनाई को अपनी बेगम मानने वाले उस्ताद ने ऐसी ऊंचाइयां बख्शी जिन्हें छू पाना किसी के लिए भी मुश्किल है।
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उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने निर्विवाद रूप से शहनाई को प्रमुख शास्त्रीय वाद्य यंत्र बनाया और उसे भारतीय संगीत के केंद्र में लाए। शहनाई के पर्याय कहे जाने वाले खां साहब ने दुनिया को अपनी सुर सरगम से मंत्रमुग्ध किया और वह संगीत के जरिए विश्व में अमन और मोहब्बत फैलाने के समर्थक थे।
उस्ताद को संगीत के प्रति उत्कृष्ट सेवा के लिए वर्ष 2001 में सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। दरअसल, कला कभी मरती नहीं है। डुमरांव की रियासत खत्म हो गई, पर खान साहब की शहनाई की अनुगूंज अब भी उनके होने का एहसास कराती रहती है।
1983 में आखिरी बार आए डुमरांव
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां पर काम करने वाले मुरली मनोहर श्रीवास्तव बताते हैं कि बनारस के बालाजी मंदिर में जहां उस्ताद रियाज करते थे, वह आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। डुमरांव की मिट्टी में पले बढ़े उस्ताद वर्ष 1979 में अभिनेता भारत भूषण, नाज, मोहन चोटी के साथ पंद्रह दिनों तक डुमरांव में 'बाजे शहनाई हमार अंगना' के सूत्रधार रेलवे अधिकारी डॉ. शशि भूषण श्रीवास्तव के यहां ठहरे थे। उसके बाद वर्ष 1983 में आखिरी बार डुमरांव आए थे। आज भी ऐसा लगता है जैसे खान साहब यहीं कहीं शहनाई बजा रहे हों।