नशे को ना: नशीली दवाओं का हॉट स्पॉट बन रहा बिहार
शराबबंदी के बाद बिहार में ड्रग्स का अवैध करोबार 60 फीसद तक बढ़ा है। इसमें कोकीन से लेकर कफ सीरप तक शामिल हैं। इसपर नियंत्रण जरूरी है।
पटना [अरविंद शर्मा]। मस्ती एवं उन्माद की चाह में युवा वर्ग गुमराह हो रहा है। ऐसे रास्ते पर चल निकला है जिसका अगला पड़ाव सिर्फ अंधकार है। बिहार में पूर्ण शराबबंदी के बाद ड्रग्स का कारोबार तेजी से पांव पसार रहा है। झुग्गियों से लेकर बंगलों तक फैल रहा है अवैध तस्करों का नेटवर्क। एक बार नशा करने की कीमत 10 रुपये से लेकर छह हजार रुपये तक है।
अधिकतर युवा इसे फैशन एवं रईसों का शौक मानकर फंस रहा है। पब एवं डिस्को थिक से भी आगे 'रेव पार्टियों' में मस्ती तलाशी जा रही है। कारोबारी फायदे के लिए ऐसी पार्टियों में नशीली दवाएं और मदमस्त संगीत के जरिए जवानी में घुन लगाई जा रही है।
बिहार में नशीली दवाओं का कारोबार नया नहीं है, लेकिन शराबबंदी के बाद से इसकी रफ्तार में पंख लग गए हैं। महज दो महीने पहले राजस्थान के उदयपुर में दस हजार करोड़ रुपये की नशीली दवाएं पकड़ी गईं थीं। यह अलग-अलग तीन फैक्ट्रियों में बनाई जा रही थीं। नारकोटिक्स ब्यूरो के मुताबिक इसके बड़े हिस्से को बिहार में खपाया जाना तय था।
मगर सप्लाई से पहले पकड़े जाने से ही कहानी खत्म नहीं हो जाती। यह काम अब दूसरी अवैध कंपनियां कर रही होंगी। एक अनुमान के मुताबिक सूबे के विभिन्न शहरों में हर साल चार सौ करोड़ की नशीली दवाएं बेची जा रही हैं। अब तो गांवों तक नेटवर्क काम करने लगा है। कुछ बड़े कालेजों एवं कोचिंग इंस्टीट्यूट्स में पढ़ाई के अलावा मस्ती की तलाश भी होती है। धंधे में लगे माफिया मुनाफे के लिए युवाओं को नशीली दवाओं के अभ्यस्त बना रहे हैं।
सेहत पस्त, कारोबारी मस्त
शराबबंदी के बाद सूबे में नशीली दवाओं के बाजार में 60 फीसद तक तेजी आई है। एशियन फार्मास्युटिकल प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक नीरज कुमार के मुताबिक सबसे ज्यादा कोरेक्स सीरप एवं फैंसिडिल की बिक्री बढ़ी है। शराब की तुलना में यह सस्ती है। मात्र 60-70 रुपये में सौ एमएल की एक बोतल मिल जाती है। इसमें कोडीन की मात्रा अधिक होती है, जो जानलेवा है। प्रतिदिन एक बोतल में पर्याप्त नशा हो जाता है।
नीरज के मुताबिक सबसे ज्यादा नुकसान अल्प्राजोलम टेबलेट (नींद वाली दवा) से होता है। अत्यधिक सस्ती होने के चलते लोग इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। इसकी एक गोली डेढ़ से दो रुपये में आती है। नशे के लिए लोग एक बार में 8 से 10 गोलियां तक खा लेते हैं। यह अत्यंत जानलेवा है।
नीरज कहते हैं कि इसे बेचने-खरीदने पर पूरी सख्ती होनी चाहिए। शराबबंदी के बाद आश्चर्यजनक ढंग से ऐसी दवाएं भी मार्केट में दिखने-बिकने लगी हैं जो आम तौर पर इस्तेमाल में नहीं आती हैं। जैसे एक्सटेसी, हैश, एलएसडी, आइस, एफड्रइन, मारीजुआना, हशीश कैथामिन, चरस, नारफेन, लुफ्रिजेसिक, एमडीएमएस जैसी नशीली दवाओं का चलन बढ़ रहा है।
रईसों की पसंद कोकीन
रईस युवाओं की पहली पसंद कोकीन है। यह महंगी होती है। इसकी कीमत बाजार में 3 से 6 हजार रुपये प्रति ग्राम तक है। इसलिए इसके शौकीन अधिकतर संपन्न घरानों के बच्चे होते हैं। खासकर बड़े उद्योगपति परिवारों के बच्चे या जिनके लिए पैसा कोई मायने नहीं रखता है, वैसा परिवार।
ऐसे घरानों की युवा लड़कियां भी इसकी अभ्यस्त आसानी से हो जा रही हैं। अधिकतर युवाओं को ऐसी लत कालेज या हॉस्टल में ही पड़ जाती है। जिन्हें कोकीन खरीदने की क्षमता नहीं है, वे दूसरी तरजीह कैथामिन नाम की नशीली दवा को देते हैं। इसका नशा भी कोकीन की तरह ही होता है। इसके अलावा एक्सटेसी, एसिड, स्पीड, हेरोइन आदि एैसे नशीले पदार्थ हैं जिनका चलन ज्यादा है।
महंगे दर्जे के अधिकतर नशीले पदार्थ विदेशों से तस्करी के जरिए आते हैं। नेपाल-बांग्लादेश इसका सहज गलियारा है। फिर अलग-अलग शहरों में सप्लाई होती है। शराबबंदी के बाद दिल्ली एवं नेपाल के रास्ते बिहार में आने लगी है। दिल्ली में नाइजीरिया के नागरिक इस धंधे में ज्यादा लिप्त हैं, जिनके चंगुल में बिहार के भी युवा हैं।
कफ सीरप के गंदे धंधे का जोर
बिहार में नशे के लिए सबसे ज्यादा कफ सीरप का इस्तेमाल किया जाता है। डाक्टर की सलाह के बिना कफ सीरप बेचना गुनाह है। मगर बिहार पहले से ही इसके धंधे के लिए बदनाम रहा है। यहां की सबसे बड़ी दवा मंडी पटना के गोविंद मित्रा रोड में कई की पहचान ही कफ सीरप वाले के रूप में है।
मतलब इनके कारोबारी साम्राज्य में नशीली दवाओं की बेहिसाब बिक्री का योगदान है। बिना मर्ज के कफ सीरप का इस्तेमाल नशा के लिए होता है। इसमें कोडीन रसायन मिला होता है। इसकी जितनी अधिक मात्रा होगी, नशा उतना ही ज्यादा होगा। कफ सीरप पीने से दिमाग की बत्ती तुरंत गुल हो जाती है।
अत्यधिक प्रयोग से मिरगी रोग की आशंका बढ़ जाती है। मानसिक बीमारी भी हो सकती है। कम उम्र वाले जल्दी गिरफ्त में आ सकते हैं। कई कंपनियां जानते हुए भी कफ सीरप में कोडीन की मात्रा अधिक मिलाती हैं।
पहले उत्पादक, अब बाजार
शराबबंदी के बाद बिहार में उलटी हवा बहने लगी है। पहले सूबे में नशीली दवाओं का उत्पादन धड़ल्ले से होता था और पड़ोसी राज्यों में सप्लाई होती थी। इससे कंपनियों और कारोबारियों को अच्छी कमाई होती थी।
अब शराबबंदी के बाद सरकार की सख्ती होने लगी तो नशीली दवाओं के उत्पादन पर भी निगरानी रखी जाने लगी। लिहाजा अवैध निर्माता कंपनियां आस-पड़ोस के राज्यों में शिफ्ट होने लगीं। पहले बिहार की नशीली दवाएं नेपाल और बांग्लादेश तक भेजी जाती थी। अब उल्टा होने लगा है। बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड व पूर्वोत्तर राज्यों में नशीली दवाओं का उत्पादन बढ़ गया है। खासकर असम, त्रिपुरा और मेघालय में। जबकि खपत बिहार में बढऩे लगी है।
वजह है कि शराब पर तो रोक लगा दी गई, लेकिन नशे के विकल्पों पर रोक के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं किया गया। इससे धंधे में लिप्त कारोबारियों को मुनाफे का बाजार दिखने लगा। चोरी-छुपे बिक्री बढ़ गई। बनाने-बेचने के जोखिम की कीमत को भी दवाओं में जोड़ा जाने लगा। लिहाजा वास्तविक कीमत से कई गुनी अधिक पर नशीली दवाएं बेची जाने लगीं।
एहतियात के तौर पर सूबे के ड्रग कंट्रोलर रवींद्र सिन्हा ने दवाओं के थोक विक्रेताओं को फैंसिडिल कफ सीरप की सीमित खरीद करने की नसीहत दी है।
तीन लाख को लगी दवाओं की लत
आंकड़ों में बात करें तो सूबे में शराबबंदी के बाद करीब 10 लाख लोग शराब के विकल्प के रूप में नशीली दवाओं को आजमाने लगे हैं। सारा कारोबार अवैध है। इसलिए फैक्ट के साथ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन अनुमान है कि पिछले एक वर्ष में 50 से 60 फीसद तक नशीली दवाओं का कारोबार बढ़ा है। करोड़ों रुपये की ड्रग्स तो पिछले एक वर्ष में पकड़ी गई है।
शराबबंदी के बाद सूबे में करीब तीन लाख लोगों को नशीली दवाओं की लत लग चुकी है। सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे लोग इसकी गिरफ्त में हैं। कालेजों व कोचिंग इंस्टीट्यूट के आसपास इसकी बिक्री में इजाफा हुआ है। इसकी प्रमुख वजह है कि 27 फीसद युवा नशे के विकल्प के रूप में दवाओं को आजमाने लगे हैं। छात्रों में हेरोइन की लत ज्यादा है।
नशे के कारोबार का रैकेट झारखंड, यूपी एवं पश्चिम बंगाल में सक्रिय है, किंतु वहां हलचल कम होती है। सीमावर्ती झारखंड के जिलों में गांजा-भांग की खेती होती है। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में अफीम की खेती होती है। इससे हेरोइन समेत अन्य नशीली दवाएं बनाने के अवैध कारखानों की तादाद बढ़ी है।
नशा विमुक्ति केंद्रों पर भी नजर रखने की जरूरत
नीरज कुमार के मुताबिक नशा विमुक्ति केंद्रों पर भी नजर रखने की जरूरत है। इन केंद्रों में शराब से मुक्ति के लिए जो दवाएं दी जाती हैं उसमें भी नशा है। नतीजा होता है कि शराब को छोड़कर मरीज इसी के अभ्यस्त हो जाते हैं।
पांच अप्रैल के बाद से बिहार में एनेस्थेटिक ड्रग्स की बिक्री बढ़ी है। यह दवा मरीजों को बेहोश करने के काम में आती है। इसकी बिक्री भी तेजी से बढ़ी है। समीक्षा करने की जरूरत है कि शराब के बदले लोग कहीं इसी का तो इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। मात्रा से अधिक लेने पर यह भी नशे की तरह काम करता है। दवा दुकानों को चाहिए कि ऐसी दवाओं को डाक्टरों के पर्चे के मुताबिक ही बेचें। तय मात्रा से ज्यादा नहीं।
नीरज कहते हैं कि अल्प्राजोलम, डाइजीपाम एवं टाइमाजीपाम जैसी दवाओं को बिना पर्चे की बिक्री पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। कई बार ऐसा भी होता है कि मरीज डाक्टर के पुराने पर्चे लेकर भी दुकानों से दवा खरीदने में कामयाब हो जाते हैं। इस पर गौर करना जरूरी हो जाता है।