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Upper caste reservation: क्या एनडीए के लिए आरक्षित हो रहे हैं सवर्ण?

बिहार ही नहीं, पूरे देश में सरकारी सेवाओं में आरक्षण बड़ा राजनीतिक मुददा रहा है। राजनीतिक दल पूरी मुस्तैदी से जोडऩे में लगे हैं कि उन्हें सवर्ण आरक्षण का कितना लाभ मिलेगा।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 21 Jan 2019 02:34 PM (IST)Updated: Mon, 21 Jan 2019 11:03 PM (IST)
Upper caste reservation: क्या एनडीए के लिए आरक्षित हो रहे हैं सवर्ण?
Upper caste reservation: क्या एनडीए के लिए आरक्षित हो रहे हैं सवर्ण?

पटना [अरुण अशेष]। सवर्णों के लिए आरक्षण लागू हो गया है। सरकारी सेवाओं के अलावा शिक्षण संस्थानों में इसका लाभ मिलेगा। दिलचस्प यह है कि इसके दायरे में आने वाला समूह नफा नुकसान का हिसाब बेहद सुस्ती से कर रहा है। जबकि राजनीतिक दल पूरी मुस्तैदी से जोडऩे में लगे हैं कि उन्हें सवर्ण आरक्षण का कितना लाभ मिलेगा। उनका आकलन बेवजह नहीं है। आखिर वोट के लिए ही तो सारे जतन किए जाते हैं।

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बिहार ही नहीं, पूरे देश में सरकारी सेवाओं में आरक्षण बड़ा राजनीतिक मुददा रहा है। लंबे समय से सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों को इसका लाभ मिल रहा है। अब आर्थिक तौर पर पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को भी इसके लाभ के दायरे में कर दिया है। 

राज्य में एनडीए और खासकर भाजपा सवर्ण आरक्षण का श्रेय लेकर वोट बटोरने की कोशिश कर रही है। संक्षिप्त इतिहास यही है कि  सवर्ण अधिक संख्या में लंबे समय तक कांग्रेस के समर्थक रहे हैं। कांग्रेस कमजोर हुई तो ये भाजपा के कैंप में चले गए। राज्य के कुछ हिस्से में सवर्णों का आंतरिक संघर्ष भी तीखा रहा है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद इन समर्थकों को लग रहा है कि कांग्रेस में अभी जान है।

यह सोच उन्हें मतदान के लिए एक और विकल्प दे रही है। यह कांग्रेस के लिए खुशी की बात हो सकती है। कांग्रेस की खुशी हमेशा भाजपा को चिन्ता में डालने का कारण बनती है। मोटे तौर पर सवर्ण आरक्षण का श्रेय भाजपा को जाता है। कांग्रेस यह कहकर हिस्सेदारी चाहती है कि बगैर उसके समर्थन के यह संभव नहीं था। बात सही है।

राज्यसभा में कांग्रेस के समर्थन के बिना संविधान संशोधन बिल पास नहीं हो सकता था। जहां तक अन्य राजनीतिक दलों का सवाल है, राजद छोड़ सभी दलों ने आरक्षण का समर्थन किया। राजद का विरोध तौर-तरीके को लेकर था। फिर भी आरक्षित वर्ग के नए लोगों के बीच राजद की भूमिका को विलेन की तरह प्रचारित किया जा रहा है।

रणनीति के तहत राजद अपनी इस भूमिका से इंकार नहीं करता है। इसलिए भी कि आरक्षण का मुददा ही उसका मूल आधार रहा है। हिसाब यह है कि सवर्ण आरक्षण को लेकर अधिक उछल कूद मची तो प्रतिक्रिया में पिछड़ों की गोलबंदी होगी जो उसके हक में जाएगी।

जदयू का सवाल है तो वह राज्य में सरकार चला रही है। आधार के तौर पर अत्यंत पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को जोड़कर रखना उसकी प्राथमिक चिन्ता है। वह सरकार की उन नीतियों के सहारे अपने लिए सभी वर्गों की हमदर्दी चाहता है, जिनके चलते विकास इस राज्य का मुख्य राजनीतिक मुददा बन गया है। यह दिखता भी है।

सरकार की अधिकतर विकास योजनाएं सबके लिए हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के लिए हमेशा विकास के नाम पर ही वोट मांगा। इसलिए जदयू सवर्ण आरक्षण के मामले में बहुत अधिक उलझ नहीं रहा है।

उसने यह मुददा एनडीए के दूसरे घटक दलों के लिए छोड़ दिया है। भाजपा के साथ-साथ लोजपा भी आरक्षण का श्रेय ले रही है। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान कह रहे हैं कि उनके मन की मुराद पूरी हो गई है।

आज के आधार पर आकलन करें तो एनडीए को इसका राजनीतिक लाभ साफ-साफ मिलता नजर आ रहा है। केंद्र की सरकार से जो अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं, उसके चलते सवर्ण समर्थकों के मन में भाजपा के प्रति जो नाराजगी थी, वह थोड़ी कम हुई है।

गारंटी है कि यह नाराजगी आक्रामक रूप में बाहर नहीं निकलेगी। इसका चुनावी लाभ भाजपा को मिल सकता है। लेकिन, सिर्फ सवर्णों की खुशी ही भाजपा की जीत के लिए काफी नहीं है। उसे यह भी देखना होगा कि इसके चलते दूसरे समूहों में तो कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हो रही है।

मसलन, रोजगार का सिमटता अवसर। नौजवान, चाहे किसी वर्ग के हों यह उन्हें चिन्तित कर रहा है। यह सवाल भाजपा को तकलीफ में डाल सकता है कि हर साल दो करोड़ लोगों को नौकरी देने का वायदे का क्या हुआ? 

-जनता का आकलन कुछ अलग होता है

वह जो गीत का मुखड़ा है-भीलों ने बांट लिए वन, राजा को खबर तक नहीं-कुछ इसी अंदाज में राजनीतिक दलों ने आपस में जातियों को बांट लिया है। मगर, वोटतंत्र के राजा यानी जनता को खबर है कि उनकी मर्जी के बिना उन्हें बांटा गया है। न चाहते हुए भी वह भी राजनीतिक दलों के बंटवारे को स्वीकार कर रही है।

राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को इसका अंदाजा है। वे बताएंगे कि किस दल में किन जातियों के लिए कौन सा संबोधन निर्धारित है। राजनीतिक दल इस बंटवारे को जितना ठोस मानते हैं, यह उतना है नहीं। चुनावों में इसका तरल रूप भी सामने आते रहता है।

यह रूप सवर्ण और दबंग मध्यवर्ती जातियों में अधिक स्पष्ट है। यह समूह वोट के समय दल के बदले इस कारक को अधिक महत्व देता है कि उम्मीदवार अपनी जाति का है या नहीं। यह प्रवृति लोकसभा की तुलना में विधानसभा चुनाव में अधिक मुखर होकर उभरती है।

मौजूदा बिहार विधानसभा में सवर्ण विधायकों की संख्या 49 है। ये सभी दलों में हैं। जाहिर है, दल के लिए प्रतिबदध जाति समूहों के अलावा इन्हें अपनी जाति का भी वोट मिला होगा। सिर्फ सवर्ण का ही मामला नहीं है।

यह प्रवृति मध्यवर्ती पिछड़ी जातियों में भी है। थोड़ा पीछे चलें। 2005 और उसके बाद हुए विभिन्न चुनावों में एनडीए को मिली कामयाबी भी वोटरों के तरल रूप की ओर ही इशारा करता है। राजद को अगर 2010 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 22 सीटें मिलती हैं तो इसका मतलब यह भी निकलता है कि उसका माय समीकरण अनुमान के मुताबिक ठोस नहीं है। हां, 2015 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद के कुछ उप चुनावों में इस समीकरण का ठोस रूप सामने आया।

अगले लोकसभा चुनाव में अब अधिक समय नहीं रह गया है। सवर्ण आरक्षण अगर एनडीए के लिए असरदार है तो इसे बेअसर करने के उपाय भी किए जा रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका असर किस पक्ष के लिए निर्णायक होता है।  


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