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जैव-विविधता बनाम विकासवाद

नालंदा। सभी धर्मों के दर्शन को यदि एक करके समझा जाय तो उसके केन्द्र में जियो और जीने दो का

By Edited By: Published: Thu, 26 May 2016 03:19 AM (IST)Updated: Thu, 26 May 2016 03:19 AM (IST)
जैव-विविधता बनाम विकासवाद

नालंदा। सभी धर्मों के दर्शन को यदि एक करके समझा जाय तो उसके केन्द्र में जियो और जीने दो का संदेश आदिकाल से ही औचित्यपूर्ण रहा है। जो शायद मनुष्य व समाज को जीवन जीने की एक पद्धति सिखाता है और शायद सभ्य समाज यदि इस जीवन कला को आत्मसात कर लिया होता तो आज हमें अलग से अंतरराष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस मनाने की आवश्यकता न होती।

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हम इस बात के पैरोकार कतई नहीं हैं कि मानव व समाज को विकास नहीं करना चाहिए या विकासवादी सोच का नहीं होना चाहिए, विकास या परिवर्तन तो प्रकृति का आवश्यक नियम है। किन्तु विकासवाद के केन्द्र में सदैव मानव को ही रख के योजनाओं को गढ़ना या रणनीत बनाना ना ही श्रेयस्कर है और ना ही न्यायोचित, दूरगामी और सर्वहितकारी जिसका खामियाजा हम दिन व दिन विभिन्न प्राकृतिक विभीषिकाओं में बढ़ोत्तरी के रूप में महसूस कर रहे हैं।

कहते हैं आकंड़े :

यदि आंकड़ों पर नजर डाले तो दुनिया में एक लाख करोड़ से ज्यादा प्रजातियों की जैव-विविधता है। जिनका 70 फीसदी हिस्सा मात्र 17 देशों (जिनकों हम मेगा डायवर्स कहते हैं) में पाया जाता है। जिसमें 7 से 8 फीसदी हिस्से के साथ भारत भी शामिल है। अकेले भारत में 91 हजार नश्ल के प्राणी, 45000 हजार 500 प्रजातियों के पौधे 10 विभिन्न जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भारत में 33 फीसदी पौधे देशज हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाए जाते हैं।

वैज्ञानिक तरीकों से करें प्रयोग :

जैव-विविधता के ये खजाने हमें एक दो दिन में नहीं प्राप्त हुए हैं। इसको प्राप्त करने में हमें साढ़े तीन अरब वर्ष लगे हैं। इस प्रकार की न जाने कितनी अनमोल धरोहरें प्रकृति ने हमें वरदान के रूप में दी हैं जिनका यदि हम समग्रता से और वैज्ञानिक तरीकों से प्रयोग करें तो निश्चित ही हमारे विकास और आजीविका पर कोई खतरा नहीं आने पाएगा।

अधूरी विकासवाद से भारी क्षति :

लेकिन विकासवाद के जिस आधे-अधूरे समीकरण को लेकर हम आगे बढ़ते हैं उसकी एक सूक्ष्म वैज्ञानिक समीक्षा यहां आवश्यक प्रतीत होती है यदि हम केवल कृषि जगत की विकास की समीक्षा करे और पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि कृषि के औद्योगिकीकरण, रासायनिक कृषि, उच्च जल मांग वाली फसल पद्धति, उच्च लागत मूल्य खेती एवं एकल खेती ऐसी अनेक तथाकथित विकसित विधियां भारत में प्रचलित कर दी गई हैं जिससे हमारी जैव-विविधता को तीन मुख्य स्तरों पर भारी क्षति हुई है। इसमें पहला है पारिस्थितिक- तंत्र विविधता दूसरा फसल विविधता और तीसरा प्रजातिगत विविधता है।

औद्योगिकीकरण से हो रहा नुकसान :

सर्व विदित है कि प्रत्येक कृषि जलवायु क्षेत्र की अपनी खेती पद्धति होती है। जिसके मूल में वहां की वनस्पतियां व प्रजातियां होती है जो उस पारिस्थितिक क्षेत्र के अनुकूल होती है। जो एकल कृषि और औद्योगिकीकरण से न सिर्फ नष्ट हुई है बल्कि विलुप्त होने के कगार पर हैं। जैसे धान-गेहूं के एकल फसल-चक्र ने हमारे मोटे अनाज (मिलेट्स) दलहन, तिलहन आदि की मिश्रित खेती को समाप्त कर दिया है। जिसमें इन फसलों की प्रजातियां व जैव-विविधता समाप्त हो गई है।

जैव-विविधता हमारी वाहक :

जैव-विविधता हमारे समाज, सभ्यता, संस्कृति व आनुवंशिकता की वाहक होती है। जिससे हमें खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ कीड़े बीमारियां व असामयिक जलवायु परिवर्तन आदि से सुरक्षा मिलती है। साथ ही साथ लघु व सीमांत कृषकों को विभिन्न फसलों में प्रदत्त जैव-विविधता से बदलते पर्यावरण में सतत लाभ भी प्राप्त होता रहता है। हमारे पारिस्थितिक-तंत्र से केचुओं, गिद्ध, गौरैया, बाज, बाघ व विभिन्न वनस्पतियों का विलुप्त होना अपने आप में यह जानने के लिए पर्याप्त है कि हमारे पारिस्थितिकीय-तंत्र में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। और जैव विविधता शैने: शैने: नष्ट हो रही है। यदि हम इस महाजाल को संरक्षित करने के बजाय इसे नष्ट करने या अनावश्यक दोहन करने लग जायेंगे तो निश्चित ही न हमारी आजीविका सुरक्षित रहेगी और ना ही भावी-पीढ़ी का भविष्य।


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