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न ठहाके रूके, न थमी तालियों की गड़गड़ाहट..

मुकेश कुमार, बिहारशरीफ : साहित्य के माध्यम से लोगों को विशुद्ध हंसी परोसने का यह प्रयास वाकई काबिले

By Edited By: Published: Sun, 23 Nov 2014 10:00 AM (IST)Updated: Sun, 23 Nov 2014 10:00 AM (IST)
न ठहाके रूके, न थमी तालियों की गड़गड़ाहट..

मुकेश कुमार, बिहारशरीफ : साहित्य के माध्यम से लोगों को विशुद्ध हंसी परोसने का यह प्रयास वाकई काबिले तारीफ था। लोगों के चेहरों पर हंसी, मुस्कुराहट व दिलों से निकलने वाले ठहाकों ने यह साबित कर दिया कि हमारा शहर एक साहित्यक नगर है। जो फूहड़ संगीतों के बजाय साहित्य को ज्यादा पसंद करता है। ठंड के बावजूद पूरी रात लोग अपने हास्य कवियों की मदमस्त छंदों से बंधा रहा। मौका था दैनिक जागरण व आर.पी.एस स्कूल के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित हास्य कवि सम्मेलन का। जैसे-जैसे रात ढलती गयी वैसे-वैसे एक के बाद एक हास्य व व्यंग वाणी की बौछार होती गयी। नामचीन कवियों के काव्य संगीत व श्रोताओं की तालियों ने रात के अंधेरे में मानों श्वेत धवल बिखेर दिया हो। मानो रात थम गयी हो। श्रम कल्याण के मैदान में बैठे हर श्रोता आनंद विभोर व मदमस्त दिख रहा था। क्या बच्चे क्या बूढ़े आनंद के इस महासागर में सभी गोता लगा रहे थे। आधी रात में कवियत्री अन्ना देहलवी की शायरी के कातिलाने अंदाज ने हर एक को घायल किया। ''चांद से पूछो या पूछो मेरे दिल से तनहां कैसे रात बिताई'' उनकी यह गजल स्वर दिवानों के लिए खास थी। हर श्रोता सब कुछ भूल डूबना चाहते थे इस समुद्र में जहां सिर्फ आनंद ही आनंद था। फिर क्या था उसके बाद मंच को संभालने पहुंचे वीर रस के ऊर्जावान कवि आशीष अनल की गर्जन भरी कविता से लोग आंदोलित हो उठे। ऐसा लगा मानों राष्ट्र से भ्रष्टाचार आज ही खत्म हो जायेगा। व्यंग, स्वर और हास्य-परिहास्य का यह दौर बिना विश्राम लिए चलता रहा। हालांकि ठंड के इस मौसम में श्रोता कुछ देर के लिए असहज महसूस करने लगे थे। पर इसी बीच व्यंग के उस्ताद डा. सुरेश अवस्थी की गरिमामयी उपस्थिति मात्र से ही लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट बिखरने लगी। डा. अवस्थी ने उम्र के विशेष पड़ाव के उपर व्यंग करते हुए कहा कि ''कोयले पर सफेदी आ जाने से कोयले की धधक कम नहीं होती'' उनका यह व्यंग बुढ़ापे की दहलीज पर कदम रखने वाले लोगों को समर्पित था। उन्होंने कहा कि दैनिक जागरण ने सदैव लोगों के चेहरों पर मुस्कान लाने का प्रयास किया है। हंसी के इस महोत्सव को बढ़ाते हुए हास्य चिकित्सक एहसान कुरैशी जो एक विशेष पड़ाव में भी युवा दिख रहे थे ने सबसे पहले फोटोग्राफर के उपर व्यंग करते हुए कहा कि दूसरों के घरों में झांकने वाले ही अच्छे फोटोग्राफर बन सकते है। पूरी रात कवियों की व्यंग वाणी तथा स्वर लहरी का दौर चलता रहा। लोग अपने फनकारों को सुनने के लिए कुर्सी से चिपके रहे। इसके बाद युवा कवि दिनेश बाबरा हों या सुदीप भोला सबों ने श्रोताओं के ह्दय का झोला भर दिया। लोग मंत्रमुग्ध होते गये। मुस्कुराहट हंसी में तब्दील हो चुकी थी। हाथ सिर्फ तालियों के लिए उठने लगे थे। शाम रात्रि में ढलने लगी थी। पर, इसका किसे फ्रिक था। यह था कवियों की कविताओं का असर। इतनी ठंड में तो लोग अपनी मां बाप की नहीं सुनते ऐसे में एक कवि की सुनना साहित्य के प्रति प्रेम तथा कवियों को नमन था। हर कोई जागरण के इस कार्यक्रम की सराहना कर रहे थे। कवियों ने जो हंसी दी है, उस हंसी को आज संयोजने की जरूरत है। जीवन में खुशी लाने की जरूरत है।


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