चाक चले चाक! रफ्तार पकड़ने से खिले कुम्हारों के चेहरे
किशनगंज। दीपावली में देश वासियों के चाइनीज सामान का बहिष्कार का मन बना लेने से जहां इलाके के कुम्हार
किशनगंज। दीपावली में देश वासियों के चाइनीज सामान का बहिष्कार का मन बना लेने से जहां इलाके के कुम्हारों के चेहरों की रौनक बढ़ गई है। वहीं थम से गए उनके चाक ने भी धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ना प्रारंभ कर दिया है। वर्षों बाद दीपावली के मौके पर अच्छी-खासी कमाई होने की आस ने उनमें नई उमंग का संचार कर दिया है।
स्थानीय तेघरिया कुम्हार बस्ती निवासी सुरेन पाल कहते हैं कि बचपन से ही इस पुस्तैनी पेशे से जुड़ा हूं, पर हाल के वर्षों में दूसरों के घरों को रोशन करने वालों के घर अंधेरा छा गया था। परंतु इस वर्ष स्थिति विपरीत है। दीपावली के नजदीक आ जाने के कारण पूरा परिवार मिट्टी के दीये के साथ साथ अन्य पूजन सामग्री बनाने के लिए दिनरात मेहनत कर रहा है। कई दिनों के बाद मौसम के मेहरबान होने से भी नई उम्मीद की किरण भी जाग उठी है। हालांकि उन्होंने कहा कि बढ़ती महंगाई से उनका यह पुस्तैनी धंधा भी अछूता नहीं रहा है। सामान की बढ़ती कीमत व हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी उतनी कमाई नहीं हो पाती है कि परिवार का भरण पोषण भी ठीक ढंग से कर सकें। कच्चे सामान के मूल्य में भारी इजाफा होने के बावजूद स्थानीय बाजार में मिट्टी के बने बर्तनों व दीयों की कीमतों में कुछ खास वृद्धि नहीं हुई है। सिर्फ दीया की बात करें तो 100 दीया बनाने में 80 रूपये की लागत आती है,जबकि बाजार में एक रुपया प्रति दीया बेचना उनकी मजबूरी है। उन्होंने कहा कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ ने दीये की लौ को फीका कर दिया था। दीपावली के मौके पर दीपों की रोशनी की जगह रंगबिरंगे बल्वों व झालरों ने ले ली थी। कीमत में सस्ते होने व बिजली सुलभ होने के कारण प्राय: लोग अपने घरों व प्रतिष्ठानों को बिजली की रौशनी से रौशन करने लगे थे। दीपावली के मौके पर दीया जलाना तो मात्र परंपरा ही बन कर रह गई थी। परंतु इस दीवाली स्थानीय लोगों के रुख को देख एक नई आस जाग उठी है। पाकिस्तान के साथ लगातार बिगड़ते संबंध के बीच चीन द्वारा पाकिस्तान का साथ दिए जाने के बाद देश वासियों द्वारा चीनी सामान के बहिष्कार का मन बना लेने से व शहर के बाजार में चीन निर्मित सस्ते रंगबीरंगी झालरों की मांग में कमी आ जाने से इस वर्ष दीये की अच्छी बिक्री की आस जरूर जग उठी है। सुरेन पाल ने कहा कि सरकार द्वारा भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। इस कला को जीवित रखने के लिए सरकार द्वारा न तो सरकारी सहायता ही उपलब्ध कराई जाती है और ना ही किसी तरह का प्रशिक्षण ही प्रदान किया जाता है। सिर्फ पर्व त्योहार में ही कुम्हारों की व मिट्टी के बने बर्तनों की पूछ रह गई है। नतीजतन नई पीढ़ी इस चाक कला से पूरी तरह से अनभिज्ञ ही बनी हुई है। उन्होंने कहा कि अगर सरकार जल्द इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तो,यह कला पुरी तरह से विलुप्त हो जाएगी। उन्होंने कहा कि पूर्व के दिनों में सिर्फ तेघरिया कुम्हार बस्ती में इस धंधे से 14 परिवार जुड़े थे, परंतु मेहनत के अनुपात में कमाई ना होने से आधे से अधिक परिवारों ने इस धंधे से मुंह मोड़ लिया है। जबकि अगली पीढ़ी ने तो इस कला से दूर ही रहने का मन बना लिया है।