गांवों से दूर हो रहा ढोलक व चौपाल
उपेन्द्र कुमार, परबत्ता(खगड़िया) भारतीय संस्कृति में होली का विशेष महत्व है। फागुन कृष्ण पक्ष के पं
उपेन्द्र कुमार, परबत्ता(खगड़िया)
भारतीय संस्कृति में होली का विशेष महत्व है। फागुन कृष्ण पक्ष के पंचमी को सरस्वती पूजा के साथ ही गांव में होलिका दहन के बाबत सम्मत जला दिया जाता है। फगुवा के रंग के साथ ही 'होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुबीरा' में लोग मस्त हो जाते थे।
संस्कृति के प्रति उदासीन दिख रही युवा पीढ़ी
आधुनिकता के इस दौर में युवा पीढ़ी अपनी पुरानी परंपरा के प्रति उदासीन दिख रही है। पुरानी संस्कृति विलुप्त होने के खतरे से बड़े-बुजुर्गो में चिंता देखी जा रही है। वसंत ऋतु में पेड़-पौधे पुराने पत्तों का त्याग करते हैं। नए कोपल लगते हैं। फलों का राज आम मंजरों में लद कर युवापन दिखाता है। इन दिनों मंजरों की खुशबू मदमस्त कर रही है। सरसों के पीले पीले फूलों से खेत भी चमक रहा है। इतने के बावजूद प्रकृति से सीख लेकर भी युवा अपनी परंपरा को नहीं सहेज रहे। वासंतिक फागुनी बयार के साथ गांव में गाए जाने वाले चौपाल के साथ ढोलक की थाप अब सुनाई नहीं दे रहा है।
क्या कहते हैं लोग
कन्हैयाचक के राजीव कुमार, पसराहा के बिन्देश्वरी प्रसाद सिंह, पाटिलीपुत्र सेंट्रल स्कूल के डायरेक्टर जेपी सिंह आदि बताते हैं कि होली के पहले जो उल्लास रहा था वह अब नहीं दिख रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में एक सप्ताह तक ढोलक और चौपाल की गूंज होती थी। लोगों द्वारा चौताल, फुलारा, जाति, मती, रेताल आदि फगुवा के कई दोहे एवं गीत चौपाल पर बैठकर गाए जाते थे। वर्तमान युग में लोग ओडियो, बीडीओ से फगुवा का आनन्द ले रहे हैं। वहीं बुजुर्ग श्रीकात चौधरी बताते हैं कि युवा पीढ़ी के लोग होली का अर्थ सिर्फ रंग लगाना ही समझते हैं। बदलते जमाने में पुरानी परंपरा धुमिल कर दी गई है। होली के हुरदंग को देख बूढे़ पुराने लोग आहत हैं। होली के दिन विदेशी एवं देशी शराब की बिक्त्री चोरी छिपे भी बढ़ जाती है।