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कोसी में रेणु की 'कश्ती' को नहीं मिला किनारा

कटिहार [प्रकाश वत्स]। बिहार के सत्ता संग्राम के दो अहम धु्रव जदयू महागठबंधन व राजग द्वारा लगभग प्रत्

By Edited By: Published: Fri, 25 Sep 2015 12:59 AM (IST)Updated: Fri, 25 Sep 2015 12:59 AM (IST)
कोसी में रेणु की 'कश्ती' को नहीं मिला किनारा

कटिहार [प्रकाश वत्स]। बिहार के सत्ता संग्राम के दो अहम धु्रव जदयू महागठबंधन व राजग द्वारा लगभग प्रत्याशियों की घोषणा कर दी गयी है। प्रत्याशियों के चयन से ही विकास के मुद्दे पर चुनाव होने की दोनों गठबंधनों का दावा जमीन पर टूट चुका है। पूरे बिहार की तरह ही कोसी के हालात भी समान ही हैं। वोट समीकरण को आधार बनाकर बिछायी जा रही हर विसात से विकास व समरस समाज के नारे का खोखलापन खुद झांकने लगा है। इससे यह साफ हो गया कि लगभग 43 साल पूर्व कालजयी कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने चुनावी महासंग्राम में जिस धारा को प्रवाह देने की कोशिश की थी, उससे अब तक किनारा नहीं मिल पाया है।

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दरअसल, साहित्य व कला की साधना को जीवन समर्पित करने वाले रेणु जनतंत्र के विकृत होते रूप से भी काफी आहत थे। यही कारण था कि सन 1972 में उन्होंने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव लड़कर चुनाव में मजबूत हो रही काली धारा को भेदने की भरपूर कोशिश की थी। जनतंत्र में बाहुबल, धनबल सहित जाति व धर्म के उभर रहे घेरे को लेकर वे आम जन में एक संदेश देने की कोशिश कर रहे थे। उस चुनाव में उन्हें चुनाव चिह्न के रुप में नाव मिला था। विभिन्न दलों के ऑफर को ठुकराते हुए वे जनतंत्र में आम जन की अहमियत प्रतिष्ठापित करने के धुन में लगे रहे। यद्यपि वे चुनाव हार गये, लेकिन इसका अफसोस वहां के लोगों को भी वर्षो तक सालता रहा। हालांकि उसके बाद उन्होंने इस तरफ मुड़कर भी नहीं देखा।

लेकिन उनकी इस पहल का असर यह रहा कि हर चुनावी मौसम में रेणु के गीत कोसी में गूंजने लगे। हर बड़े दल उनकी विचारधारा की दुहाई देते रहे, लेकिन व्यवहारिक तौर पर उनकी कश्ती को किनारा किया जाता रहा। वर्तमान चुनाव में जब सत्ता संग्राम के दो मुख्य दावेदार जदयू महागठबंधन व भाजपा गठबंधन द्वारा प्रत्याशियों की घोषणा कर दी गयी है, सब कुछ सामने हैं। इतना ही नहीं इस घेरे को और मजबूत करने के लिए सीमांचल में उन मुद्दों को हवा दी जाने लगी है, जो उनके मेनिफेस्टों में कहीं नहीं है। पूरी तरह जातीय गणित पर बिछ रही इस विसात में धनकुबेरों, अप्रत्यक्ष रुप से बाहुबलियों तक की कतार खड़ी हो चुकी है। साहित्यकार चन्द्रशेखर मिश्र की मानें तो वर्तमान परिदृश्य में जनतंत्र का मूल अर्थ ही विलोपित हो चुका है। वर्तमान में तो अप्रत्यक्ष रूप से यह राजतंत्र का रूप भी ले चुका है। राजनीति में परिवारवाद आखिर है क्या। क्या आज आम आदमी के लिए विधानसभा तो दूर पंचायत चुनाव लड़ना भी संभव रह पाया है। व्यवस्था जो सीमा निर्धारित करे, लेकिन विस चुनाव में एक-दो नहीं दस-दस करोड़ तक फूंके जाते हैं। साम, दंड, भेद सबका इस्तेमाल होता है। अब आम आदमी के बस में कहां राजनीति रह गयी है। राजनीति के वर्तमान लोग रेणु के भाव व उद्देश्य को समझ ही नहीं सकते हैं..।


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