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मिट्टी के दीये व चाक की गति पर संकट

अनिल कुमार सिंह, बड़हरा : मैं दीया हूं। मिट्टी का दीया। मिट्टी से निकला हूं। मिट्टी में मिल जाता हूं

By Edited By: Published: Mon, 20 Oct 2014 06:08 PM (IST)Updated: Mon, 20 Oct 2014 06:08 PM (IST)
मिट्टी के दीये व चाक की गति पर संकट

अनिल कुमार सिंह, बड़हरा : मैं दीया हूं। मिट्टी का दीया। मिट्टी से निकला हूं। मिट्टी में मिल जाता हूं। मगर रोशनी से लेकर रोजगार तक फैलाता हूं। मिट्टी से जुड़े लोग दूसरों की खुशी में अपनी खुशी मानते हैं। दूसरों के गम को अपना गम समझते हैं। वैसे लोग देश हित को प्राथमिकता देते हैं। सामाजिक ढांचे के सारथी होते हैं, पर्यावरण के प्रहरी होते हैं, संस्कार के संवाहक होते हैं, संस्कृति के संरक्षक होते हैं और परंपरा के प्रतिपालक होते हैं। मैं वो दीया हूं, जो सबके घर दिवाली मनाते हैं। निर्धन-धनवान की फर्क मिटा देता हूं। तेल और बाती की रक्षा अंतिम सांस तक करता हूं। तेल मिलते ही जिंदा हो जाता हूं। अंधियारे को दूर भगाता हूं। फूलझडि़यों को जलाकर बच्चों को खुश करता हूं। उछलते-कूदते बच्चों से सयानों को लुभाता हूं। दादी मां को दीये सजाने में लगता हूं। चाची-मां को बाती पूरने में लगाता हूं। दीदी-बहनों के हाथ की थाली में सजकर देवता के चौखट तक जाता हूं। सुनसान पड़े कुंओं के जगत को जगमग करने पहुंच जाता हूं। नदियों में तैर कर पाताल से आसमान तक की फिजा बदल देता हूं। घाट किनारे का नजारा बदल देता हूं। आसमान से ताकते तारों के सामने धरती पर एक नया आसमान बिछा देता हूं। शायद आसमान सोचता है नीचे एक नया आसमान कहां से आया है। वर्ष में एक दिन ही सही। मैंने भी तो आसमान को ललचाया है। मगर इतना होने के बाद भी अब मुझे कुछ संकोच होने लगा है। अपने अस्तित्व पर कुछ शंका होने लगा है। लोगों के पास बढ़ते पैसे मुझे कुछ तिरस्कार मिलने लगा है। सोचता हूं अपने भविष्य पर। उससे भी ज्यादा सोचता हूं। मुझे बनाने वाले उन हाथों पर। जिन हाथों ने मुझे चाक पर नचाकर शहर, बाजार व महलों में पहुंचाया है। जिन हाथों ने मुझे सहेज कर आदर के लायक बनाया है, जिन हाथों ने तपस्या की आग में पक्का कर मुझे कामायाब बनाया है। जिन हाथों ने मिट्टी में भी जान फूंकी है अब उन हाथों का क्या होगा? बनाया माल कम बिकता है। पारंपरिक हूनर दम तोड़ रही है। वे हाथ अब अपने परिवार के परवरिश में भी अक्षम होने लगे हैं। इलेक्ट्रानिक दीये बाजार पर कब्जा जमाने लगे हैं। परंपरा दूर हो रही है। सामाजिक ताने-बाने बिगड़ रहे हैं। मिट्टी के दीये तथा मिट्टी में जान फूंकने वाले दोनों के अस्तित्व पर संकट छाने लगी है।


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