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विलुप्त होती जा रही हैं सावन की मस्तियां

बेगूसराय। एक समय था जब गांव देहात से लेकर शहर तक में सावन माह के आरंभ होते ही घर के

By Edited By: Published: Wed, 26 Aug 2015 11:06 AM (IST)Updated: Wed, 26 Aug 2015 11:06 AM (IST)
विलुप्त होती जा रही हैं सावन की मस्तियां

बेगूसराय। एक समय था जब गांव देहात से लेकर शहर तक में सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ व बगीचे में झूले लग जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। लेकिन झूले लगाने की परंपरा भी बदलते परिवेश में विलुप्त होती जा रही है। कारण है कि समय के साथ पेड़ गायब हो रहे हैं। पक्के भवन बनने से आंगन और बगीचा का अस्तित्व भी समाप्त होता जा रहा है। सावन के झूले इतिहास बनते जा रहे हैं। अब सिर्फ मंदिरों में होने वाले सावन के मेलों में या कृष्णाष्टमी में भगवान को झूला झुलाने की परंपरा रह गई है। जहां चंदन का पालना, रेशम की डोर, झूला झूले नंदकिशोर, गाया जा रहा है। पहली सावन आते ही युवतियां हरे परिधान में, नवविवाहिता हरी साड़ियों में, हरी चूड़ियां पहन, वर्षा की फुहारों में हरियाली का आनंद लेते हुए टोलियां बनाकर सावनी गीत गाते झूला झूलने निकलती थीं। प्रदेश में मजदूरी करने वाले नवविवाहित युवक भी सावन की मौज मस्ती के लिए झूला का आनंद उठाने घर पहुंचते और गुनगुनाते नजर आते थे।

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